Friday, October 28, 2011

रेगिस्तान में पानी


कुछ समय पहले अमृतसर में पंजाब नाटशाला देखने का मौका मिला.  
उत्‍तर भारत में शिमला में गेयटी थियेटर और चंडीगढ़ में टेगोर थियेटर के अलावा 
और कोई नाम ध्‍यान में नहीं आता है. अमृतसर की पंजाब नाटशाला  
अपनी तरह का नवीन नाट्यगृह है. खासियत यह है कि यह 
एक अकेले व्‍यक्ति का उद्यम है. उम्‍मीद है कि‍ 
पंजाब नाटशालाआने वाले समय में 
कलाओं का एक सुगढ़ संकुल बन जाएगी. 

हिंदी भाषी क्षेत्रों में नाटक खेलने की परंपरा एक लगभग सूखी हुई नदी की तरह है. रामलीला को छोड़ दीजिए तो नाटक कुछ ही शहरों में होते हैं. प्रायः न नाटक होते हैं, न ही लोगों में नाटक देखने की रुचि का ही विकास हुआ है. जो नाट्यकर्म होता भी है उसमें अधिकतर कलानुरागी (एमेच्‍योर) किस्‍म का होता है. नाटक नहीं हैं तो नाट्यगृह भी नहीं हैं. सरकार ने किसी जमाने में राज्‍यों की राजधानियों में कविगुरू रवींद्र के नाम पर प्रेक्षागृह बनवाए थे. लेकिन बाकी शहरों में सन्‍नाटा है. जैसे साहित्यिक किताबों की दुकानों का अकाल है. ऐसे माहौल में जब कोई अकेला व्‍यक्ति पहल करता है तो उम्‍मीद जगती है कि धीरे धीरे कला आस्‍वाद की परंपरा बनेगी. 


मंच पर नाटक का पूर्वाभ्‍यास चल रहा है
ऐसा ही एक अकेला बंदा गुरुओं की तीर्थ नगरी अमृतसर में है जिसने वहां नाटक का एक तीर्थ निर्मित कर दिया है. जतिंदर बरार ने 1998 में पंजाब नाटशाला की नींव रखी और धीरे धीरे इसे एक शानदार नाट्यगृह में बदल डाला है. पेशे से इंजीनियर श्री बरार कई साल विदेश में रहे. देश का प्रेम और नाटक का शौक उन्‍हें वापस हिंदुस्‍तान खींच लाया. अमृतसर शहर के पुतलीघर इलाके में लगी अपनी फैक्‍ट्री को शहर से बाहर ले गए और वहां एक प्रेक्षागृह बना दिया. 


बरार की इंजीनियरी आंख ने इस सभागार को तकनीकी रूप से अत्‍याधुनिक प्रेक्षागृह बना दिया है. इसका मंच घूमने वाला (रिवाल्विंग) है. हमारे देश में घूमने वाले मंच  कम ही हैं. इस तरह के मंच में दृश्‍यबंध बदलने में आसानी होती है. पार्श्‍व में दृश्‍यबंध तैयार रखा जाता है. जैसे ही एक दृश्‍य खत्‍म होता है और अंधेरा होता है तो बिजली चालित मंच घूम जाता है. पिछला हिस्‍सा आगे अगला पीछे चला जाता है. मंच आलोकित होने पर दर्शक के सामने नया दृश्‍य संसार साकार हो जाता है. आम तौर पर नाटक में अभिनेता अगल बगल से प्रवेश करते हैं, लेकिन पंजाब नाटशाला के मंच पर जरूरत पड़ने पर पात्र मंच फाड़ कर यानी नीचे से भी प्रकट हो सकता है. नाटशाला में इस सुवि‍धा को एक नया आयाम कहा जा सकता है. एक हाइड्रालिक लिफ्ट लगाई जा रही है जिसके जरिए दृश्‍यबंध उठाकर मंच तक पहुंचाया जा सकेगा. जिन नाटकों में बड़े और ज्‍यादा सेटों की जरूरत हो, उनके लिए यह लिफ्ट फायदेमेद रहेगी. दृश्‍य परिवर्तन में समय कम लगेगा और नाटकीय प्रभाव भी पड़ेगा. बरार साहब को नाटक के दौरान और भी कई तरह के चामत्‍कारिक किस्‍म के यथार्थवादी प्रभाव पैदा करने का शोक है. ऐसी व्‍यवस्‍था की गई है कि अगर नाटक में बरसात का दृश्‍य हो तो छींटे दर्शकों पर भी पड़ जाते हैं. रसोई में पंजीरी बन रही हो तो खुशबू दर्शकों को भी आ जाती है. श्री बरार इन प्रभावों का जिक्र बड़े चाव से करते हैं. उनके लिखे नाटकों में इस तरह के दृश्‍य रहते हैं. नाटक में आम तौर पर दर्शक की सुनने और देखने की इंद्रियों का प्रयोग होता है. बरार साहब अपने दर्शक को सूंघने और छूने का सुख भी देना चाहते हैं. इस तरह वे दर्शक को यथार्थ का सांगोपांग किस्‍म का अनुभव देना चाहते हैं. उन्‍होंने एक नए नाट्य प्रभाव का जिक्र भी किया जिसमें नदी या तालाब यानी पानी के होने का वास्‍तविक प्रभाव पेदा किया जा सकेगा. इतना ही नहीं सैलोरामा पर पानी में झिलमिलाती रौशनियों का प्रभाव भी आ सकता है. यथार्थवादी और ऐतिहासिक नाटकों के लिए इस तरह की सुविधाओं की जरूरत पड़ती है.  


दृश्‍यबंध से सजा मंच
 पिछले दस बारह सालों में उन्‍होंने इस प्रेक्षागृह को एक नाट्य संकुल का रूप दे दिया है. बड़े बड़े ग्रीन रूम बनाए गए हैं. वस्‍त्राभूषण का एक भंडारगृह है. बाहर से आने वाली मंडलियों के लिए अतिथिशाला है. प्रेक्षागृह भी अब वातानुकूलित हो गया है. पंजाब नाटशाला को जतिंदर बरार ने घर की तरह स्‍नेह और चाव से खड़ा किया है. लगभग हर वस्‍तु में उनकी छाप नजर आती है. इंजीनियर होने के नाते उन्‍होंने तकनीक के नए नए प्रयोग किये हैं, प्रेक्षागार के अंदर भी और बाहर भी. बरार सा‍हब नाटशाला को एक सामाजिक जिम्‍मेदारी की तरह लेते हैं. उनके खुद के लिखे नाटक सामाजिक समस्‍या प्रधान नाटक हैं. नाटक के दर्शकों में अभिरुचि जगाने के अलावा परिसर की सफाई और सजावट पर भी उनका ध्‍यान रहता है. यहां तक कि मध्‍यांतर में परोसे जाने वाले चाय नाश्‍ते की नफासत में भी उनकी छाप दिख जाती है. नाटशाला की एक और खासियत है कि हरेक प्रदर्शन के बाद राष्‍ट्रगान गाया जाता है. समय की पाबंदी यहां की एक और खासियत है. समय की यह पाबंदी तब भी बरकरार रही जब पंजाब के मुख्‍यमंत्री कैप्‍टन अमरेंद्र सिंह नाटक देखने आए. मुख्‍यमंत्री नाटक और परिसर से इतने प्रभावित हुए कि सारे राज्‍य को नाटक पर ल्रगने वाले मनोरंजन कर से छूट मिल गई. 


प्रकाश व्‍यवस्‍था
एक बार को ऐसा लगता है कि बरार साहब का झुकाव ऐंद्रिक यथार्थपरकता की तरफ ज्‍यादा है. लेकिन इसका अपना महत्‍व है. दर्शक को आकर्षित करने में ये तरकीबें काम आती हैं. इस तरह की ऐंद्रिक यथार्थपरकता से दर्शक के नाट्य अनुभव में भी गहनता आती है. जिस तरह हास्‍य नाटक दर्शकों को खींचते हैं. तकरीबन सभी रंगमंडलियां उसमें मिर्च मसाला भी डालती ही हैं. पंजाब नाटशाला में भी हास्‍य नाटक होते हैं. टेलिविजन के लाफ्टर चैलेंज वाले राजीव ठाकुर और भारती सिंह इसी नाटशाला से निकले हैं. अगले दौर में हम एम्‍मीद कर सकते हैं कि पंजाब नाटशाला से कुछ और नए अभिनेता, निर्देशक और नाटककार निकलेंगे.

अब यहां दूसरे शहरों की रंगमंडलियां भी नाटक करने आती हैं. कई पाकिस्‍तानी नाटकों का मंचन भी हुआ है. नाटशाला ने अपना एक दर्शक वर्ग बना लिया है. स्‍कूली बच्‍चों के लिए भी नाटक के प्रदर्शन किए जाते हैं. हमारे समाज को जतिंदर बरार जैसे कई धुनी लोगों की जरूरत है.

यह टिप्‍पणी पिछले दिनों जनसत्‍ता में भी छपी है.  पंजाब नाटशाला की और अधिक जानकारी यहां है.

कुछ और चित्र- 

भीतरी दीबारें 
सभागार में प्रवेश
बांस के दरवाजे









 
 

 

जतिंदर बरार अपने दफ्तर में

जतिंदर बरार और सुरेंद्र मोहन मेहरा के साथ









Friday, October 21, 2011

सरलता के सहारे हत्या की हिकमत

छायांकन - हरबीर
                                                                            
पिछले दिनों राजभाषा के नीति-निर्देशों को लेकर गृह मंत्रालय का 
एक नया 'परिपत्र' प्रकाश में आया है, उसने भाषा के संबंध में निश्चय ही 
एक नये 'विमर्श' को जन्म दे दिया है। क्योंकि, भाषा केवल 'सम्प्रेषणीयता' का 
माध्यम भर नहीं है, बल्कि वह मनुष्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आविष्कार भी है। 
फिर क्या किसी भी राष्ट्र की भाषा की संरचना में मनमाने ढंग से 
छेड़छाड़ की जा सकती है? क्या वह मात्र एक सचिव और समिति के 
सहारे हांकी जा सकती है? निश्चय ही इस प्रश्न पर समाजशास्त्री, शिक्षा-शास्त्री, संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक विद्वानों को बहस के लिए आगे आना चाहिए। 
यहां प्रस्तुत है, इस प्रसंग में एक बौद्धिक-जिरह को 
जन्म देने वाली प्रभु जोशी की टिप्पणी-

भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय की सेवा-निवृत्त होने जा रही एक सचिव सुश्री वीणा उपाध्याय ने जाते-जाते राजभाषा संबंधी नीति-निर्देशों के बारे में एक ताजा परिपत्र जारी क्या किया कि बस अंग्रेजी अखबारों की तो पौ-बारह हो गयी। उनसे उनकी खुशी संभाले नहीं संभल पा रही है। क्योंकि, वे बखूबी जानते हैं कि बाद ऐसे फरमानों के लागू होते ही हिन्दी, अंग्रेजी के पेट में समा जायेगी।  दूसरी तरफ हिन्दी के वे समाचार-पत्र, जिन्होंने स्वयं को 'अंग्रेजी-अखबारों के भावी पाठकों की नर्सरी' बनाने का संकल्प ले रखा है, उनकी भी बांछें खिल गयीं और उन्होंने धड़ाधड़ परिपत्र का स्वागत करने वाले सम्पादकीय लिख डाले। वे खुद उदारीकरण के बाद से आमतौर पर और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल करने के बाद से खासतौर पर अंग्रेजी की भूख बढ़ाने का ही  काम करते चले आ रहे हैं।

ऐसे में 'अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष' के अघोषित एजेण्डे को लागू करने वाले दलालों के लिए तो इस परिपत्र से 'जश्न-ए-कामयाबी' का ठीक ऐसा ही समां बंध गया होगा, जब अमेरिका का भारत से परमाणु-संधि का सौदा सुलट गया था। दरअस्ल, देखने में बहुत सदाशयी-से जान पड़ने वाले इस संक्षिप्त से परिपत्र के निहितार्थ नितान्त दूसरे हैं, जिसके परिणाम लगे हाथ सरकारी दफ्तरों में दिखने लगेंगे। बहरहाल यह किसी सरकारी कारिन्दे का रोजमर्रा निकलने वाला 'कागद' नहीं, भाषा सम्बन्धी एक बड़े 'गुप्त-एजेण्डे' को पूरा करने का प्रतिज्ञा-पत्र है।

दरअस्ल, चीन की भाषा 'मंदारिन' के बाद दुनिया की 'सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा-हिन्दी' से डरी हुई, अपना 'अखण्ड उपनिवेश बनाने वाली अंग्रेजी' ने, 'जोशुआ फिशमेन' की बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए, 'उदारीकरण' के शुरू किये जाने के बस कुछ ही समय पहले एक 'सिद्धान्तिकी' तैयार की थी, जो ढाई-दशक से 'गुप्त' थी, लेकिन 'इण्टरनेटी-युग' में वह सामने आ गयी। इसका नाम था, 'रि-लिंग्विफिकेशन'

अंग्रेज शुरू से भारतीय भाषाओं को भाषाएं न मान कर उनके लिए 'वर्नाकुलर' शब्द कहा करते थे। वे अपने बारे में कहा करते थे, 'वी आर अ नेशन विथ लैंग्विज, व्हेयरएज दे आर ट्राइब्स विद डॉयलेक्ट्स।' फिर हिन्दी को तो तब खड़ी 'बोली' ही कहा जा रहा था। लेकिन, दुर्भाग्यवश एक गुजराती-भाषी मोहनदास करमचंद गांधी ने इसे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में 'प्रतिरोध' की भाषा बना दिया और नतीजतन, गुलाम भारत के भीतर एक 'जन-इच्छा' पैदा हो गयी कि इसे हम 'राष्ट्रभाषा' बनाएं और कह सकें 'वी आर अ नेशन विद लैंग्विज'। लेकिन, 'राष्ट्रभाषा' के बजाय वह केवल 'राजभाषा' बनकर रह गयी। यह भी एक कांटा बन गया।
बहरहाल, चौंसठ वर्षों से सालते रहने वाले कांटे को कहीं अब जाकर निकालने का साहस बटोरा जा सका है। यह एक बहुत ही दिलचस्प बात है कि अभी तक, पिछले पचास बरस से हिन्दी में जो शब्द चिर-परिचित बने चले आ रहे थे, पिछले कुछ वर्षों में उभरे 'उदारीकरण' के चलते अचानक 'कठिन' 'अबोधगम्य' औस टंग-टि्व्स्टर हो गये। परिपत्र में पता नहीं हिन्दी की किस पत्रिका के उदाहरण से समझाया गया है, कि 'भोजन' के बजाय 'लंच', 'क्षेत्र' के बजाय 'एरिया', 'छात्र' के बजाय 'स्टूडेण्ट', 'परिसर' के बजाय 'कैम्पस', 'नियमित' की जगह 'रेगुलर', 'आवेदन' के बजाय 'अप्लाई', 'महाविद्यालय' के बजाय 'कॉलेज', आदि-आदि हैं, जो 'बोधगम्य' है।

हिन्दी के 'सरकारी हितैषियों का मुखौटा' लगाने वाले लोग निश्चय ही पढ़े-लिखे लोग हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि भाषाएं कैसे मरती हैं और उन्हें कैसे मारा जाता हैं।  बीसवीं शताब्दी में अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं का खात्मा करके उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित करने की रणनीति उन्हें भी बेहतर ढंग से पता होगी। उसको कहते हैं, 'थिअरी ऑव ग्रेजुअल एण्ड स्मूथ-लैंग्विज शिफ्ट'। इसके तहत सबसे पहले 'चरण' में शुरू किया जाता है- 'डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि'। अर्थात 'स्थानीय-भाषा' के शब्दों को 'वर्चस्ववादी-भाषा' के शब्दों से विस्थापित करना । बहरहालपरिपत्र में सरलता के बहाने सुझाया गया रास्ता  उसी 'स्मूथडिस्लोकेशन ऑफ वक्युब्लरि ऑफ नेटिव लैंग्विजेज' वाली सिद्धान्तिकी का अनुपालन है। क्योंकि, 'विश्व व्यापार संघ के द्वारा बार-बार भारत सरकार को कहा जाता रहा है कि 'रोल ऑफ गव्हर्मेण्ट आर्गेनाइजेशन्स शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोशन ऑव इंग्लिश'। इसी के अप्रकट निर्देश के चलते हमारे 'ज्ञान-आयोग' गहरे चिन्‍तन-मनन का नाटक कर के  कहा कि 'देश के केवल एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी जानते हैं, अत: शेष को अंग्रेजी सिखाने के लिए पहली कक्षा से अंग्रेजी विषय की तरह  शुरू कर दी जाये।' यह 'एजुकेशन फॉर आल' के नाम पर विश्व-बैंक द्वारा डॉलर में दिये गये ऋण का दबाव है, जो अपने निहितार्थ में 'इंग्लिश फॉर आल' का ही एजेण्डा है। अत: 'सर्वशिक्षा-अभियान' एक चमकीला राजनैतिक झूठ है। यह नया पैंतरा है, और जो 'भाषा की राजनीति' जानते हैं, वह बतायेंगे कि यह वही 'लिंग्विसिज्म' है, जिसके तहत भाषा को वर्चस्वी बनाया जाता है। दूसरा झूठ होता है, स्थानीय भाषा को 'फ्रेश-लिविंस्टिक लाइफ' देने के नाम पर उसे भीतर से बदल देना। पूरी बीसवीं शताब्दी में उन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं को इसी तरह खत्म किया।

एक और दिलचस्प बात यह कि हम 'राजभाषा के अधिकारियों की भर्त्सना' में बहुत आनन्द लेते हैं, जबकि हकीकतन वह केन्द्रीय सरकारी कार्यालयों का सर्वाधिक लतियाया जाता रहने वाला नौकर होता है। कार्यालय प्रमुख की कुर्सी पर बैठा अधिकारी उसे सिर्फ हिन्दी पखवाड़े के समय पूछता है और जब 'संसदीय राजभाषा समिति' जो दशकों से खानापूर्ति के लिए आती-जाती है, के सामने बलि का बकरा बना दिया जाता है। यह परिपत्र भी उन्हीं के सिर पर ठीकरा फोड़ते हुए बता रहा है कि हिन्दी के शब्द कठिन, दुरूह और असम्प्रेष्य है। जबकि, इतने वर्षों में कभी पारिभषिक-शब्दावलि का मानकीकरण' सरकार ने खुद ही नहीं किया।

कहने की जरूरत नहीं कि यह इस तथाकथित 'भारत-सरकार' (जबकि, इनके अनुसार तो 'गव्हर्मेण्ट ऑफ इण्डिया' ही सरल शब्द है) का इस आधी-शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन है, जो देश के एक अरब बीस करोड़ लोगों को वह अंग्रेजी सिखाने का संकल्प लेती है, लेकिन 'साठ साल में मुश्किल से हिन्दी के हजार-डेढ़ हजार शब्द' नहीं सिखा पायी। यह सरल-सरल का खेल खेलती हुई किसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही है ?

यह बहुत नग्न-सचाई है कि देश की मौजूदा सरकार 'उदारीकरण के उन्माद' में अपने 'कल्याणकारी राज्य' की गरदन कभी की मरोड़ चुकी है और 'कार्पोरेटी-संस्कृति' के सोच' को अपना अभीष्ट मानने वाले सत्ता के कर्णधारों को केवल 'घटती बढ़ती दर' के अलावा कुछ नहीं दिखता। 'भाषा' और 'भूगोल' दोनों ही उनकी चिंता के दायरे से बाहर हैं। निश्चय ही इस अभियान में हमारा समूचा मीडिया भी शामिल है, जिसने देश के सामने 'यूथ-कल्चर' का राष्ट्रव्यापी मिथ खड़ा किया और 'अंग्रेजी और पश्चिम के सांस्कृतिक उद्योग' में ही उन्हें अपना भविष्य बताने में जुट गया। यह मीडिया द्वारा अपनाई गई दृष्टि उसी 'रायल-चार्टर' नीति का कार्यान्वयन है, जो कहता है, 'दे शुड नॉट रिजेक्ट अवर लैंग्विज एण्ड कल्चर इन फेवर आफ 'देअर' ट्रेडिशनल वेल्यूज। देअर स्ट्रांग एडहरेन्स टू मदर टंग हैज टू बी रप्चर्ड।'

कहना न होगा कि 'लैंग्विजेज शुड बी किल्ड विथ काइण्डनेस' की धूर्त रणनीति का प्रतिफल है, यह परिपत्र। बेशक इसे बकौल राहुल देव 'हिन्दी के ताबूत में आखिरी कील' समझा जाना चाहिए। बहरहाल, हिन्दी को सरल और बोधगम्य बनाये जाने की सद्-इच्छा का मुखौटा धारण करने वाले इस चालाक नीति-निर्देश की चौतरफा आलोचना की जाना चाहिए और कहा जाना चाहिए कि इसे वे अविलम्ब वापस लें। निश्चय ही आप-हम-सब  इस लांछन के साथ इस संसार से बिदा नहीं होना चाहेगें कि 'प्रतिरोध' की सर्वाधिक चिंतनशील भाषा का एक सांस्कृतिक रूप से अपढ़ सत्ता का कोई कारिन्दा हमारे सामने उसका गला घोंटे और हम चुप बने रहें तो यह घोषित रूप से जघन्य सांस्कृतिक अपराध है और हिन्दी के हत्यारों की फेहरिस्त हमारा भी नाम रहेगा।

यह सरकार का हिन्दी को 'आमजन' की भाषा बनाने का  पवित्र इरादा नहीं है, बल्कि खास लोगों की भाषा के जबड़े में उसकी गरदन फंसा देना की सुचिंतित युक्ति है। यह शल्यक्रिया के बहाने हत्या की हिकमत है। यह बिना लाठी टूटे सांप की तरह समझी जाने वाली भाषा को मारने की तरकीब है, क्योंकि यह अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को डंसती है।

क्या कभी कोई कहता है कि अंग्रेजी का फलां शब्द कठिन है ? 'परिचय-पत्र' के बजाय 'आइडियेण्टिटी कार्ड' कठिन शब्द है? ऐसा कहते हुए वह डरता है। इस सोच से तो 'राष्ट्र' शब्द कठिन है और अंतत: तो उनके लिये पूरी हिन्दी ही कठिन हैं । बस अन्त में यही कहना है कि अंग्रेजी की दाढ़ में भारतीय-भाषाओं का खून लग चुका है। उसके मुंह से खून की बू आ रही है और इस 'भाषाखोर' के सामने हमारी भाषाओं के गले में इसी तरह फंदा डाल कर धक्का दिया जा रहा है। यही वह समय है कि हम संभलें और हिंसा की इस कार्रवाई का पुरजोर विरोध करें। 

इसी व‍िष्‍ाय पर यहां भी पढ़ें 

- प्रभु जोशी
303, गुलमोहर निकेतन, वसंत-विहार
(शांति निकेतन के पास)
इन्दौर-10

Monday, October 17, 2011

शहरियों की सैर




पिछले कुछ समय से आप यहां डायरी के अंश पढ़ रहे हैं. 
लगभग एक दशक पुरानी डायरी. यह इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी है. 


सागर तट पर शाम को पर्यटक होते हैं। सुबह सवेरे स्वास्‍थ्‍य के प्रति जागरूक लोग होते हैं। उनमें भी ज्‍यादातर खाए पीए अघाए लोग। सुबह उठते समय जिन्हें खट्टे डकार आते हों, कमर सीधी न होती हो, घुटने साथ छोड़ने छोड़ने को हों, शरीर आपे से बाहर जा रहा हो, वे सब धोबी से धुली, इस्त्री की हुई सफेद निक्करें और टी शर्ट पहन कर , बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जागिंग जूते-मौजे पहन कर तट को घंटा घंटा भर रौंदते रहते हैं। बाज शौकीन लोग तो कान में ईयर फोन भी घुसेड़े रहते हैं। तार उनकी जेबों में घुसी होती है। वे कोई संगीत सुन रहे होते हैं जैसे उनके पास वक्त की बेहद कमी हो। जुहू बीच पर सुबह साढ़े छह से साढ़े सात बजे तक बेहद भीड़ होती है। दूर तक नर दौड़ाइए। मेले का सा ही आलम होता है। प्रकृति का ही रूप है सागर। अथाह विस्तार। समतल। उसके किनारे रेतीले तट। तट पर भीड़।
प्रकृति का एक और भव्य विराट रूप है पहाड़। वह भी वाज जगह अवितिज  फैला होता है। पर उस पर चढ़ना आसान नहीं होता। पर पहाड़ की तराई में या घाटी में तट जैसा समा नहीं बंध सकता। क्या पहाड़ में भी सैर के शौकीन कभी इस तरह भीड़ जमा कर सकते हैं। शायद नहीं। सैर के लिए कुछ हद तक समतल जगह ढ़ूंढनी ही होगी। या पगडंडी हो, या सड़क हो। ज्‍यादा चढ़ाई में सैर हो नहीं पाती। चढ़ना ही आसान नहीं होता।
सैर करना शहरी व्यक्ति का शौक है। जो वक्त के साथ जरूरत बन जाता है। जो आदमी शारीरिक श्रम करता है, उसे सैर की जरूरत नहीं। जो गांव देहात से आया हो, उसे भी सैर वक्त की बर्बादी लगता है। जब काम से चलना हो तो मीलों चल लेगा। बिना काम के चलना खीझ पैदा करता है और नकारपन का भाव भी पैदा करता है। शहरी और ग्रामीण आदमी की जीवन शैली का भेद है। यह भेद खान पान, कपड़े लत्ते , सोने जागने, उठने बैठने, बोलने चलने, पढ़ने लिखने, पानी सानी संपूर्ण जीवन शैली में है। 
11-5-99

Friday, October 7, 2011

हैं और नहीं हैं



पिछले कुछ अर्से से डायरी के कुछ अंश लगा रहा हूं. 
ये दस साल से ज्‍यादा पुराने हैं. हमारा वक्‍त बहुत तेजी से बदल रहा है, यह सच है पर बहुत कुछ वैसा ही है, 
यह भी तो उतना ही सच है.

फल वाले के पास एक व्यक्ति आया। सेब के दाम पूछे। संतरे के पूछे। ज्‍यादा भाव-ताव नहीं किया। दो सेब ले लिए। फलवाले ने तोल के देने की बात कही- पाव किलो संतरे तो तुलते नहीं। वह बीस या तीस रुपए दे के चला गया। ये रुपए उसने कष्ट से ही निकाले होंगे। पर अपरिहार्य मानकर निकाले होंगे। जरूर घर में कोई बीमार होगा। बच्चा होगा। पत्‍नी पति या मां-बाप का काम बिना फलों के भी चल जाता है। बीमारी में भी। बच्चों की बीमारी में पेट काटकर फल लाए जाते हैं। यूं शहर में फलों के अंबार लगे हैं। खरीदने खाने वालों की भी कमी नहीं। पर न खा पाने वालों की कहां कमी है। वे तो खा पाने वालों से ज्‍यादा ही होंगे।

और डाक्टरों को एक ही काम होता है। कोई बीमार हो तो पहली सलाह होगी- फल दीजिए या फलों का रस दीजिए। फलों में भी सेब या संतरा। अमरूद नहीं दे सकते। केला नहीं दे सकते। जो अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं।

फल हमारी जनता की रोजाना खुराक का हिस्सा नहीं है। मिलता ही कहां है। मिलता तो है खरीदने के पैसे नहीं होते। एक ही बात है। मुफ्त में मिल नहीं जाएगा। खरीदने की ताकत ज्‍यादा नहीं है। मेहनतकश लोग हैं। फल जल्दी पचता है। उससे पेट नहीं भरता। उसे तो भरे पेट वालों का ही पेट भरता है। भोजन ऐसा चाहिए जो भूख जल्दी न लगाए। अन्न ही उपयोगी है। इसलिए फल बीमारी के लिए ही है। बीमारों की गिजा। तो क्या भर पेट लोग ही बीमार हैं? उनसे क्या लेना देना। यह कुतर्क हो जाएगा। मुद्दे की बात यह है कि मेहनतकश को भी फल मिलना चाहिए। बीमारी में ही नहीं। सहेतमंदीं में भी मिलना चाहिए। पर निकट भविष्य में तो यह संभव होता नहीं दिखता।

तो उस दिन उस भाई को दो दो सेब संतरे खरीदते देख बड़ी कटार सी लगी। मैं भी फल खरीद रहा था। एक पूरा तरबूज, एक पूरा पपीता और अंगूर।

बहुत शर्म आई।

ऐसी व्यवस्था में फंसे हैं। 'है और नहीं है' का फर्क बड़ा है। बड़ा खराब लगता है। अब यह भी संभव नहीं है कि अपने पास जो है, उसे दे दें। किस किस को देंगे। सर्वाइव कैसे करेंगे। क्या इसी ऊहापोह के साथ रहना होगा।
 14-2-99