Saturday, November 12, 2011

काल को सम पर लाना

 



पिछले दिनों मुंबई में जहांगीर कला दीर्घा में संजय कुमार की 
चित्र एवं मूर्ति-शिल्प प्रदर्शनी लगी थी। संजय मूलतः इलाहाबाद के हैं और 
पिछले कई वर्षों से मंबई में रह कर स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं।  
'टाइम्स ट्रांसमिशन' शीर्षक की इस प्रदर्शनी में समय को एक प्रभावशाली रूपक में ढाला गया है।

द अल्टीमेट रोटेशन
चित्रकला दीर्घाओं में जाना हमेशा ही अच्छा लगता है। इस बार काला घोड़ा स्थित जहांगीर आर्ट गैलरी में बापू की जयंती (2 अत्तूफ्बर 2011) के दिन जाने का मौका मिला। जहांगीर के मुख्य हॉल में तीन प्रदर्शनियां लगी थीं। हम शुरू में ही लगी संजय कुमार की प्रदर्शनी को ही किंचित रस लेकर देख पाए। किंचित इसलिए क्योंकि चित्र और शिल्पकृतियों को देखने भर से काम नहीं चलता। उनके अभिप्रायों तक पहुंचने के लिए, उन कला  रूपों का रसास्वादन करने के लिए काफी समय चाहिए। कई बार कोई कृति एक भेंट में पर्याप्त नहीं खुलती, उसके पास बार बार जाना पड़ता है। यह भी संभावना बनी रहती है कि हर भेंट में कृति का एक नया पाठ बने या पहले पाठ में परिवर्तन परिवर्धन हो। पर हमारी जीवन शैली ऐसी है कि समय की कमी प्रायः बनी रहती है। इस बार भी बस एक ही झलक हम ले पाए। पर इस  झलक का प्रभाव गहरा था। यहां संजय कुमार के तैल चित्र और फाइबर ग्लास में बने मूर्ति-शिल्प थे। लगभग इन सभी कृतियों में घड़ी का प्रयोग हुआ है। चित्रकार ने प्रदर्शनी की विवरण-पुस्तिका में काल को इस तरह देखा है

''समय सिर्फ रोजमर्रा के कामों को तरतीब देने की वस्तु मात्र नहीं है। समय भौतिक और पराभौतिक को जोड़ने वाली चेतना की अद्भुत ऊर्जा है। यह एक से दूसरे रूप में संचरित होने की अवस्था है, जीवन के विकास की एक प्रक्रिया है। यह एक सत्ता के भीतर से उद्भूत होती है। विविधता के बावजूद जीवन के चक्र को चलाए रखने के लिए दिमाग ऊर्जा को बचा लेता है। फिर वहां यही अस्तित्व का रूप ले लेता है।''
संजय ने काल की अपनी इस अवधारणा को चित्रों और मूर्ति-शिल्पों के माध्यम से रूपायित किया है। चित्रों में काले और नीले रंग की छटाओं के बीच मन भावन फीके सफेद रंग की अठखेलियां हैं। असल में हम सभी प्रदर्शनियों में चित्रों को एक बार देखते हैं, उसके बाद स्मृति में उन्हें बार बार देखते हैं। स्मृति में देखने में स्‍वैर-कल्पना (फैंटेसी) की भी पूरी संभावना रहती है। भीतर अलग ही तरह की रम्य-रचना होती रहती है। आधिक्य की तरफ झुकी हुई। 

द इनकारनेशन
यहां मूर्तियां फाइबर ग्लास की हैं पर धातु से बने होने का प्रभाव देती हैं। धूसर मिट्टी सा रंग और ऊपर से चमकीली तैलीय परत। देखने में भारीपन का एहसास होता है। 'द अल्टीमेट रोटेशन' में तीन मानव आकृतियां एक धुरी के गिर्द अधर में लटकी हुई हैं। मानों वे एक वृत्त में तैर रही हैं। उनकी नृत्य-निमग्न हुई सी भंगिमाएं हैं। सिर के ऊपर चपटा काल है, सपाट चंदोबे की तरह, घड़ी के  डायल की शक्ल में, जो इन्हें बांधे हुए है। यूं वे ठोस एंगलायरन की धुरी से भी बंधे हुए हैं जिस पर डायल खड़ा है। यह धुरी एक तरह से सहारा ही है। एक तरह से ये काल से बंधे हुए जीव हैं लेकिन उसके अधीन फैले दिक् में स्वतंत्र और निर्बंध भी हैं। यहां भौतिक बंधन के भीतर अभौतिक किस्म की मुक्ति है। हो सकता है यह वस्तुस्थिति न हो, केवल मानव मन की अवस्थिति हो, जिसकी थाह हम बार बार पाना चाहते हैं या जिस तक पहुंचना चाहते हैं। क्या यही आनंद है? 'द इनकारनेशन' में ईसा मसीह की देह छरहरी है। धड़ में तीन घडि़यां धंसाई गई हैं, गोल पुराने फैशन की, और रुकी हुई। चरणों में एक आवक्ष मूर्ति वंदना के भाव में बैठी हुई है। जिसका झुका हुआ सिर और कंधे ही दिखते हैं। विराटता के समक्ष समर्पण का भाव। ईसा गहन प्रशांति में डूबे हैं। विचार और आवेग से परे। तीन घडि़यों की तरह तीन लोक से परे यानी दिक् और काल के परे उनका अवतरण हो रहा है। काल से परे या कालहीनता के आकाश या अवकाश में ही प्रशांति संभव है? क्या यह प्रस्तुति इसी तरह के संकेत दे रही है? दो अन्य चित्र हैं 'ट्रांसफारमेशन' और 'साल्वेशन' शीर्षक के। इनमें भी घडि़यां हैं और उनमें कहीं मानव आकृतियां निकल रही हैं, कहीं घुस रही हैं और कहीं घुल-मिल रही हैं - मानो मनुष्य दिक् और काल में रूपांतरण की सतत प्रक्रिया से गुजर रहा है। 

टयूनिंग द टाइम
हॉल के एक कोने में एक बड़ा ही दिलचस्प मूर्तिशिल्प रखा था - 'टयूनिंग द टाइम'। क्या हम इसे 'काल का सुर मिलाना' कह सकते हैं! इस बिंब की व्यंजना गहरी है, और मूर्ति अद्भुत। यह एक दर्जी है जो पैर से चलने वाली सिलाई मशीन पर बैठा सिलाई कर रहा है। सिले जा रहे कपड़े की जगह उसके पास घड़ी है जिसका एक सिरा सिलाई मशीन की सुई और दंदे के बीच फंसा है। घड़ी यानी घड़ी का डायल जैसे कपड़े की तरह लचीला और सिलवट पड़ा है। बल्कि चमड़े की तरह मोटा और अकड़ा हुआ है पर धातु की तरह कड़ा नहीं दिख रहा है। जबकि कमाल का प्रभाव यह है कि सारा शिल्प धातु निर्मित ही लगता है।

इसे देखने पर एक अद्भुत रूपक की सृष्टि होती प्रतीत होती है। व्यक्ति वक्त की सिलाई कर रहा है। मानो वक्त इतना पुराना पड़ गया हो कि फट गया हो या उधड़ गया हो और कोई कारीगर उसे सिल रहा हो। पर मूर्तिकार ने इस काम को सिलाई करना न कह कर 'टयूनिंग करना' कहा है। काल को जोड़ने की क्रिया तो दो काल खंडों को जोड़ने की क्रिया होगी। यह टयूनिंग है। साज का सुर मिलाने जैसी। सामंजस्य पैदा करने की क्रिया। काल से सामंजस्य या संगति बिठाना या काल को सम पर लाना कितनी प्रासंगिक उक्ति है! 

दर्जी पूरी तरह अपने में तल्लीन है। एक हाथ सिलाई मशीन के हैंडल पर रुका हुआ है, मानो अभी चक्का चलने लगेगा। दूसरे हाथ ने घड़ी के चिथड़े को थाम रखा है। नीचे पैर भी दिख रहे हैं। सारा शरीर काम करने की लय में डूबा हुआ है। पूरा ध्यान काम पर लगा हुआ है। समय को मिलाने का काम निमग्न हो के ही किया जा सकता है। पीठ, गर्दन, सिर, आंखें झुकी हुई हैं। किसी शिल्पी की विनम्र और कर्मठ देह की तरह। और शिल्पी पूरी तन्मयता से काल की रचना विरचना संरचना में लगा है। यह मानवीय कृत्य की अद्भुत उठान है। 

यह प्रदर्शनी देख कर मन में अजब स्फूर्ति आई। कलाकार से मिल कर भी अच्छा लगा। ऊर्जा और उत्साह से भरपूर संजय कुमार अपने बारे में बताने लगते हैं -

'' बचपन से ही मुझे औपचारिक शिक्षा में कोई रुचि नहीं थी। इसलिए मैं कभी भी इसमें सफल नहीं रहा। मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लेने के कारण सभी मुझसे यह उम्मीद करते कि मैं पढ़ूं और जीविका का कोई अच्छा साधन ढूंढूं। मेरे पिता श्री रामेश्वर प्रसाद को साहित्य में गहरी रुचि थी। वे फिराक गोरखपुरी के शिष्य थे, धर्मवीर भारती और गोपेश्वर आदि के साथ परिमल में सक्रिय थे। कमलेश्वर उनके मित्र थे। उनके कारण मेरी कला को एक दिशा मिल सकी। टैगोर, टॉलस्टॉय, शरत, प्रेमचंद और बंकिंम चंद्र के बारे में उनसे सुनता तो मुझे एक अजीब सी खुशी मिलती। सबसे पहले उन्होंने मुझे वैन गॉग, गौगन, एल-ग्रेको और लियोनार्डो के विषय में बताया। शायद यही वह बिंदु था जब छवियां मेरे मन में अपना काल्पनिक रूप लेने लगी थीं। यह करीब 37-38 साल पहले की बात है। उस समय के रेखाचित्र और जलरंग देख कर शायद उन्हें लगा हो कि मैं इससे बेहतर और कुछ नहीं कर सकता। ढेर सारे चित्रों के साथ 1982 में जे जे स्कूल ऑफ आट्र्स में प्रवेश लेने के लिए पहली बार मुंबई आया लेकिन कुछ न हो सका। फिर दिल्ली और बाद में हार कर आगरा कालेज से एम ए की डिग्री लेकर थोडे़ दिन जीविका की तलाश में भटकता रहा। मेरे भाई चूंकि यहां (मुंबई में) थे इसलिए एक मॉरल सपोर्ट था जिसके सहारे मैं यहां तक कला यात्रा कर सका।
''जीवन से बड़ी कोई किताब नहीं और सबसे ज्यादा उसी को पढ़ने की कोशिश की। मेरा मानना है कि जो भी स्वाभाविक रूप से प्रेरित करे वही शक्तिशाली अभिव्यक्ति होती है, उसमें एक कलाकार की सोच और संकल्पना का समावेश होता है।''
कला वीथि की इस संक्षिप्त यात्रा के अंतिम पड़ाव पर संजय से विदा लेते समय उनसे अगली योजना के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि अगला काम 'मेट्रो साउंड' नाम की एक शृंखला हो सकती है, जिसमें जीवन के आसपास की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का समावेश होगा।

3 comments:

  1. सुना था कि शब्द रंग के अनुपूरक नहीं हो सकते ....अब पूछूँगा, क्यों नहीं ?

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  2. आमजन को कला में स्थान मिलने से प्रयास खास हो जाता है।

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