Friday, October 21, 2011

सरलता के सहारे हत्या की हिकमत

छायांकन - हरबीर
                                                                            
पिछले दिनों राजभाषा के नीति-निर्देशों को लेकर गृह मंत्रालय का 
एक नया 'परिपत्र' प्रकाश में आया है, उसने भाषा के संबंध में निश्चय ही 
एक नये 'विमर्श' को जन्म दे दिया है। क्योंकि, भाषा केवल 'सम्प्रेषणीयता' का 
माध्यम भर नहीं है, बल्कि वह मनुष्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आविष्कार भी है। 
फिर क्या किसी भी राष्ट्र की भाषा की संरचना में मनमाने ढंग से 
छेड़छाड़ की जा सकती है? क्या वह मात्र एक सचिव और समिति के 
सहारे हांकी जा सकती है? निश्चय ही इस प्रश्न पर समाजशास्त्री, शिक्षा-शास्त्री, संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक विद्वानों को बहस के लिए आगे आना चाहिए। 
यहां प्रस्तुत है, इस प्रसंग में एक बौद्धिक-जिरह को 
जन्म देने वाली प्रभु जोशी की टिप्पणी-

भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय की सेवा-निवृत्त होने जा रही एक सचिव सुश्री वीणा उपाध्याय ने जाते-जाते राजभाषा संबंधी नीति-निर्देशों के बारे में एक ताजा परिपत्र जारी क्या किया कि बस अंग्रेजी अखबारों की तो पौ-बारह हो गयी। उनसे उनकी खुशी संभाले नहीं संभल पा रही है। क्योंकि, वे बखूबी जानते हैं कि बाद ऐसे फरमानों के लागू होते ही हिन्दी, अंग्रेजी के पेट में समा जायेगी।  दूसरी तरफ हिन्दी के वे समाचार-पत्र, जिन्होंने स्वयं को 'अंग्रेजी-अखबारों के भावी पाठकों की नर्सरी' बनाने का संकल्प ले रखा है, उनकी भी बांछें खिल गयीं और उन्होंने धड़ाधड़ परिपत्र का स्वागत करने वाले सम्पादकीय लिख डाले। वे खुद उदारीकरण के बाद से आमतौर पर और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल करने के बाद से खासतौर पर अंग्रेजी की भूख बढ़ाने का ही  काम करते चले आ रहे हैं।

ऐसे में 'अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष' के अघोषित एजेण्डे को लागू करने वाले दलालों के लिए तो इस परिपत्र से 'जश्न-ए-कामयाबी' का ठीक ऐसा ही समां बंध गया होगा, जब अमेरिका का भारत से परमाणु-संधि का सौदा सुलट गया था। दरअस्ल, देखने में बहुत सदाशयी-से जान पड़ने वाले इस संक्षिप्त से परिपत्र के निहितार्थ नितान्त दूसरे हैं, जिसके परिणाम लगे हाथ सरकारी दफ्तरों में दिखने लगेंगे। बहरहाल यह किसी सरकारी कारिन्दे का रोजमर्रा निकलने वाला 'कागद' नहीं, भाषा सम्बन्धी एक बड़े 'गुप्त-एजेण्डे' को पूरा करने का प्रतिज्ञा-पत्र है।

दरअस्ल, चीन की भाषा 'मंदारिन' के बाद दुनिया की 'सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा-हिन्दी' से डरी हुई, अपना 'अखण्ड उपनिवेश बनाने वाली अंग्रेजी' ने, 'जोशुआ फिशमेन' की बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए, 'उदारीकरण' के शुरू किये जाने के बस कुछ ही समय पहले एक 'सिद्धान्तिकी' तैयार की थी, जो ढाई-दशक से 'गुप्त' थी, लेकिन 'इण्टरनेटी-युग' में वह सामने आ गयी। इसका नाम था, 'रि-लिंग्विफिकेशन'

अंग्रेज शुरू से भारतीय भाषाओं को भाषाएं न मान कर उनके लिए 'वर्नाकुलर' शब्द कहा करते थे। वे अपने बारे में कहा करते थे, 'वी आर अ नेशन विथ लैंग्विज, व्हेयरएज दे आर ट्राइब्स विद डॉयलेक्ट्स।' फिर हिन्दी को तो तब खड़ी 'बोली' ही कहा जा रहा था। लेकिन, दुर्भाग्यवश एक गुजराती-भाषी मोहनदास करमचंद गांधी ने इसे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में 'प्रतिरोध' की भाषा बना दिया और नतीजतन, गुलाम भारत के भीतर एक 'जन-इच्छा' पैदा हो गयी कि इसे हम 'राष्ट्रभाषा' बनाएं और कह सकें 'वी आर अ नेशन विद लैंग्विज'। लेकिन, 'राष्ट्रभाषा' के बजाय वह केवल 'राजभाषा' बनकर रह गयी। यह भी एक कांटा बन गया।
बहरहाल, चौंसठ वर्षों से सालते रहने वाले कांटे को कहीं अब जाकर निकालने का साहस बटोरा जा सका है। यह एक बहुत ही दिलचस्प बात है कि अभी तक, पिछले पचास बरस से हिन्दी में जो शब्द चिर-परिचित बने चले आ रहे थे, पिछले कुछ वर्षों में उभरे 'उदारीकरण' के चलते अचानक 'कठिन' 'अबोधगम्य' औस टंग-टि्व्स्टर हो गये। परिपत्र में पता नहीं हिन्दी की किस पत्रिका के उदाहरण से समझाया गया है, कि 'भोजन' के बजाय 'लंच', 'क्षेत्र' के बजाय 'एरिया', 'छात्र' के बजाय 'स्टूडेण्ट', 'परिसर' के बजाय 'कैम्पस', 'नियमित' की जगह 'रेगुलर', 'आवेदन' के बजाय 'अप्लाई', 'महाविद्यालय' के बजाय 'कॉलेज', आदि-आदि हैं, जो 'बोधगम्य' है।

हिन्दी के 'सरकारी हितैषियों का मुखौटा' लगाने वाले लोग निश्चय ही पढ़े-लिखे लोग हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि भाषाएं कैसे मरती हैं और उन्हें कैसे मारा जाता हैं।  बीसवीं शताब्दी में अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं का खात्मा करके उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित करने की रणनीति उन्हें भी बेहतर ढंग से पता होगी। उसको कहते हैं, 'थिअरी ऑव ग्रेजुअल एण्ड स्मूथ-लैंग्विज शिफ्ट'। इसके तहत सबसे पहले 'चरण' में शुरू किया जाता है- 'डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि'। अर्थात 'स्थानीय-भाषा' के शब्दों को 'वर्चस्ववादी-भाषा' के शब्दों से विस्थापित करना । बहरहालपरिपत्र में सरलता के बहाने सुझाया गया रास्ता  उसी 'स्मूथडिस्लोकेशन ऑफ वक्युब्लरि ऑफ नेटिव लैंग्विजेज' वाली सिद्धान्तिकी का अनुपालन है। क्योंकि, 'विश्व व्यापार संघ के द्वारा बार-बार भारत सरकार को कहा जाता रहा है कि 'रोल ऑफ गव्हर्मेण्ट आर्गेनाइजेशन्स शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोशन ऑव इंग्लिश'। इसी के अप्रकट निर्देश के चलते हमारे 'ज्ञान-आयोग' गहरे चिन्‍तन-मनन का नाटक कर के  कहा कि 'देश के केवल एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी जानते हैं, अत: शेष को अंग्रेजी सिखाने के लिए पहली कक्षा से अंग्रेजी विषय की तरह  शुरू कर दी जाये।' यह 'एजुकेशन फॉर आल' के नाम पर विश्व-बैंक द्वारा डॉलर में दिये गये ऋण का दबाव है, जो अपने निहितार्थ में 'इंग्लिश फॉर आल' का ही एजेण्डा है। अत: 'सर्वशिक्षा-अभियान' एक चमकीला राजनैतिक झूठ है। यह नया पैंतरा है, और जो 'भाषा की राजनीति' जानते हैं, वह बतायेंगे कि यह वही 'लिंग्विसिज्म' है, जिसके तहत भाषा को वर्चस्वी बनाया जाता है। दूसरा झूठ होता है, स्थानीय भाषा को 'फ्रेश-लिविंस्टिक लाइफ' देने के नाम पर उसे भीतर से बदल देना। पूरी बीसवीं शताब्दी में उन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं को इसी तरह खत्म किया।

एक और दिलचस्प बात यह कि हम 'राजभाषा के अधिकारियों की भर्त्सना' में बहुत आनन्द लेते हैं, जबकि हकीकतन वह केन्द्रीय सरकारी कार्यालयों का सर्वाधिक लतियाया जाता रहने वाला नौकर होता है। कार्यालय प्रमुख की कुर्सी पर बैठा अधिकारी उसे सिर्फ हिन्दी पखवाड़े के समय पूछता है और जब 'संसदीय राजभाषा समिति' जो दशकों से खानापूर्ति के लिए आती-जाती है, के सामने बलि का बकरा बना दिया जाता है। यह परिपत्र भी उन्हीं के सिर पर ठीकरा फोड़ते हुए बता रहा है कि हिन्दी के शब्द कठिन, दुरूह और असम्प्रेष्य है। जबकि, इतने वर्षों में कभी पारिभषिक-शब्दावलि का मानकीकरण' सरकार ने खुद ही नहीं किया।

कहने की जरूरत नहीं कि यह इस तथाकथित 'भारत-सरकार' (जबकि, इनके अनुसार तो 'गव्हर्मेण्ट ऑफ इण्डिया' ही सरल शब्द है) का इस आधी-शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन है, जो देश के एक अरब बीस करोड़ लोगों को वह अंग्रेजी सिखाने का संकल्प लेती है, लेकिन 'साठ साल में मुश्किल से हिन्दी के हजार-डेढ़ हजार शब्द' नहीं सिखा पायी। यह सरल-सरल का खेल खेलती हुई किसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही है ?

यह बहुत नग्न-सचाई है कि देश की मौजूदा सरकार 'उदारीकरण के उन्माद' में अपने 'कल्याणकारी राज्य' की गरदन कभी की मरोड़ चुकी है और 'कार्पोरेटी-संस्कृति' के सोच' को अपना अभीष्ट मानने वाले सत्ता के कर्णधारों को केवल 'घटती बढ़ती दर' के अलावा कुछ नहीं दिखता। 'भाषा' और 'भूगोल' दोनों ही उनकी चिंता के दायरे से बाहर हैं। निश्चय ही इस अभियान में हमारा समूचा मीडिया भी शामिल है, जिसने देश के सामने 'यूथ-कल्चर' का राष्ट्रव्यापी मिथ खड़ा किया और 'अंग्रेजी और पश्चिम के सांस्कृतिक उद्योग' में ही उन्हें अपना भविष्य बताने में जुट गया। यह मीडिया द्वारा अपनाई गई दृष्टि उसी 'रायल-चार्टर' नीति का कार्यान्वयन है, जो कहता है, 'दे शुड नॉट रिजेक्ट अवर लैंग्विज एण्ड कल्चर इन फेवर आफ 'देअर' ट्रेडिशनल वेल्यूज। देअर स्ट्रांग एडहरेन्स टू मदर टंग हैज टू बी रप्चर्ड।'

कहना न होगा कि 'लैंग्विजेज शुड बी किल्ड विथ काइण्डनेस' की धूर्त रणनीति का प्रतिफल है, यह परिपत्र। बेशक इसे बकौल राहुल देव 'हिन्दी के ताबूत में आखिरी कील' समझा जाना चाहिए। बहरहाल, हिन्दी को सरल और बोधगम्य बनाये जाने की सद्-इच्छा का मुखौटा धारण करने वाले इस चालाक नीति-निर्देश की चौतरफा आलोचना की जाना चाहिए और कहा जाना चाहिए कि इसे वे अविलम्ब वापस लें। निश्चय ही आप-हम-सब  इस लांछन के साथ इस संसार से बिदा नहीं होना चाहेगें कि 'प्रतिरोध' की सर्वाधिक चिंतनशील भाषा का एक सांस्कृतिक रूप से अपढ़ सत्ता का कोई कारिन्दा हमारे सामने उसका गला घोंटे और हम चुप बने रहें तो यह घोषित रूप से जघन्य सांस्कृतिक अपराध है और हिन्दी के हत्यारों की फेहरिस्त हमारा भी नाम रहेगा।

यह सरकार का हिन्दी को 'आमजन' की भाषा बनाने का  पवित्र इरादा नहीं है, बल्कि खास लोगों की भाषा के जबड़े में उसकी गरदन फंसा देना की सुचिंतित युक्ति है। यह शल्यक्रिया के बहाने हत्या की हिकमत है। यह बिना लाठी टूटे सांप की तरह समझी जाने वाली भाषा को मारने की तरकीब है, क्योंकि यह अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को डंसती है।

क्या कभी कोई कहता है कि अंग्रेजी का फलां शब्द कठिन है ? 'परिचय-पत्र' के बजाय 'आइडियेण्टिटी कार्ड' कठिन शब्द है? ऐसा कहते हुए वह डरता है। इस सोच से तो 'राष्ट्र' शब्द कठिन है और अंतत: तो उनके लिये पूरी हिन्दी ही कठिन हैं । बस अन्त में यही कहना है कि अंग्रेजी की दाढ़ में भारतीय-भाषाओं का खून लग चुका है। उसके मुंह से खून की बू आ रही है और इस 'भाषाखोर' के सामने हमारी भाषाओं के गले में इसी तरह फंदा डाल कर धक्का दिया जा रहा है। यही वह समय है कि हम संभलें और हिंसा की इस कार्रवाई का पुरजोर विरोध करें। 

इसी व‍िष्‍ाय पर यहां भी पढ़ें 

- प्रभु जोशी
303, गुलमोहर निकेतन, वसंत-विहार
(शांति निकेतन के पास)
इन्दौर-10

10 comments:

  1. दो तथ्य इसमें विचारणीय हैं,
    पहला, सरकारी क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली हिन्दी की मात्रा बहुत कम है अतः वह सारे स्वरूप को प्रभावित कर पायेगी, इसमें संशय है।
    दूसरा, जिसके पर्याय हिन्दी में नहीं हैं, उन शब्दों के शीघ्रतम सरलीकरण से हिन्दी और मजबूत होगी।
    डगर कठिन है, असंभव नहीं।

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  2. मेरे लिए ज्ञानवर्धक . दूसरी बार पढ़ा. हिन्दी मेरी प्रिय भाषा है. इसी लिए सोचता हूँ कि इस सम्बन्ध मे मुझे कितना *सुरक्षात्मक* तेवर दिखाना चाहिए ? इस मामले में सत्ता का दखल, चाहे किसी भाषा विशेष को ध्वस्त करने के लिए हो या फिर उसे ज़बरन एक जगह स्थिर कर देने के लिए.....अंततः भाषा का अहित ही करेगा न ?

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  3. प्रवीण जी, देखा जाए तो सरकारी क्षेत्र की भाषा का दायरा कम नहीं है, उसे सीमित बनाए रखा गया है. वरना अगर उच्‍च शिक्षा हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में मिल रही होती तो दायरा अपने आप बढ़ गया होता. राजभाषा को अनुवाद की भाषा बना कर अप्रिय और अपठनीय बनाया गया है जिसका इलाज अब भ्रष्‍ट पत्रकारिता की भाषा की नकल करने के आदेश देकर सुझाया गया है. कुछ हिंदी पत्र-पत्रि‍काओं की हिंग्ल‍िश अपनाने की मजबरी हमें चौंकाती है, और अब सरकार इस रवैये को आदेश में बदल रही है, यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है.
    और अजेय जी, राजयोग हिंदी पर कुंडली मार कर बैठा है. सत्‍ता अगर चाहती तो हिंदी को सहज चाल से चलने दे सकती थी.

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  4. जी , वही तो कह रहा हूँ. सत्ता शायद किसी भी शै को सहज चाल से नही चलने देती. वह आप की ओर मदद (प्रोमोट करने) की मुद्रा मे हाथ बढ़ाती है , और मौका मिलते ही (शिकंजे मे लाते ही) आप का *बेजा* इस्तेमाल करने लगती है. इस लिए मैं साँस्कृतिक मामलों में सत्ता के दखल को अवैध मानता हूँ .राजाश्रय संस्कृति को *फिनिशिंग* तो देता है लेकिन *स्टेटिक्* (जड़)भी बना देता है. मैं तो जड़ता की बजाय अनगढ़्ता पसन्द करूँगा ........

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  5. अजेय जी, आपकी बात सामान्‍यतः और सिद्धांततः ठीक है. मुझे ल्रगता है कि हिंदी/राष्‍ट्रभाषा/राजभाषा का मसला इस सिद्धांत से देखा जाएगा तो उदासीनता का शिकार होकर अकाल मृत्‍यु को प्राप्‍त होगा. हिंदी के राजभाषा बनने के सांस्‍कृतिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक परिप्रेक्ष्‍य को ध्‍यान में रखना पड़ेगा. भाषा का संबंध सांस्‍कृतिक जीवन और राष्‍ट्रीय अस्मिता से भी जुड़ा है. सत्‍ता और बाजार की शक्तियां संस्‍कृति, भाषा, सोच जैसे लंबे समय तक 'लोकचित्‍त' को प्रभावित करने वाले मसलों को अपने हित में मोड़ती हैं. इस तरह की चालों के प्रति सचेत और सक्रिय तो रहना ही होगा वरना हवा के साथ सब कुछ उड़ जाएगा.

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  6. इस परिपत्र पर मुझे मनोरंजन की दुनिया के कॉरपोरेट ढांचे की सोच का असर साफ़ नज़र आ रहा है। दरअसल इन दिनों जितने 'जानकारियों तथा मनोरंजन' वाले चैनल चल रहे हैं उनमें भाषा को लेकर भारी संशय है। जीवन-शैली और पर्यटन से जुड़े एक चैनल ने हाल ही में अपने क्षेत्र की एक नई भाषा गढ़के खासा हंगामा मचाया है। इसमें लगातार अंगेज़ी शब्‍दों का इतना ज्‍यादा प्रयोग है कि सुनते हुए हैरत होती है। साठ फीसदी अंग्रेज़ी और चालीस हिंदी। इससे हुआ ये कि बचे हुए चैनलों में हड़कंप मच गया। किसी ने तय किया कि वो पचास फीसदी हिंदी रखेगा। किसी ने कुछ और तय किया। और इस तरह भाषा का कूडा होने की प्रक्रिया आरंभ हो गयी।

    सोप-ओपेरा की दुनिया में ऐसा पहले से चला आ रहा था। बोलचाल की भाषा वाला जुमला रेडियो में भी काफी दबाव पैदा करता है। निजी रेडियो चैनलों ने भाषा का जो स्‍वरूप कर दिया है उससे सरकारी अमले पर दबाव हैं। फिर इधर की ताज़ा पीढ़ी ने हिंदी को लेकर जिस तरह नाक भौं सिकोड़नी शुरू कर दी है--उस सबका असर मुझे इस परिपत्र पर नज़र आता है। मैंने ये परिपत्र पढ़ा है। और सरल हिंदी का प्रयोग करें वाला आग्रह तो ठीक लगा। पर इसके आगे जिस तरह उदाहरण देकर समझाया गया, वहां से आगे काफी असहमतियां जाहिर की जा सकती हैं।

    पर कुल मिलाकर मैं यही कहना चाहता हूं कि दरअसल अब पूरे मनोरंजन जगत के साथ साथ सरकारी अमला भी भाषा को बदलने के लिए तत्‍पर हो गया है।

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  7. नामवर सिंह द्वितीयNovember 1, 2011 at 5:15 PM

    हिंदी की आज जो दुर्गति हुई है, उसमें सबसे बड़ी भूमिका श्रीकांत वर्मा व अशोक बाजपेयी जैसे मल्टीपल फ्लॉप नौकरशाहों की रही है, जो साहित्यकारों के बीच स्वयं को अफसर और अफसरों के बीच स्वयं को साहित्यकार के रूप में पेश करते रहे हैं. इनके तो फिर भी डबल रोल ही थे, कुछ तो ट्रिपल रोल वाले भी हैं. वे अफसरों के बीच कहानीकार बन जाते हैं, कहानीकारों के बीच चित्रकार और चित्रकारों के बीच अफसर. ऐसे लोग रोने-धोने में भी एक्सपर्ट होते हैं. लेकिन इन्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, हिंदी की लघु-पत्रिकाएं निकलती रहेंगी और ये उनमें रचनाएं सप्लाय करते रहेंगे.

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  8. यूनुस भाई आपने श्रव्‍य माध्‍यम के संशय की बात रखी. बोलचाल की भाषा के नाम पर टेलिविजन में काफी खिलवाड़ होता आ रहा है. यह दिख जाता है लेकिन एफएम (रेडियो) की कारस्‍तानियां भितरघात कर रही हैं. और अब तो रेडियो मझोले शहरों में भी फैल रहा है. चुटीले और चमकीले पन के नाम पर भाषा का खाना खराब होना तय है. और आपने ठीक कहा, इसी भाषाई खिलवाड़ के दबाव में सरकार आ गई है. लेकिन कुछ अखबारें हिग्लिश के नाम पर जो धींगामुश्‍ती कर रही हैं, उसका तोड़ ढूंढना भी जरूरी है.

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  9. कुशल जी की मेल से यह टिप्‍पणी आई है. कुशल जी देर आयद दुरुस्‍त आयद....

    प्रभुजोशी का लेख और उस पर आयी प्रतिक्रियाएं पढ़ कर जख्मक हरा हो गया। बहुत पुरानी बात है हिन्दीउ के एक बड़े लेखक से बहस हो रही थी और उनके जवाब से में सन्नन हो कर रह गया था। उनका कहना था हिन्दीह से क्याउ होगा, भूखे को रोटी मिल जाएगी। हमारे अधिकांश हिन्दीथ व़ालों से बात करके लगता है कि व़े हिन्दीं से उक्ता ये हुए हैं और एक मजबूरी की तरह ढो रहे हैं। आत्म विश्वा स की जगह ग्लादनी की हद तक की आत्म हीनता। जिस तरह कोई छोटे पेशे वाला अपनी संतान को उस पेशे में नहीं लाना चाहता है उसी तरहा हम अपने बच्चों को हिंदी नहीं पढ़ाना चाहते हैं। मैं अपनी बेटी को हिंदी माध्यरम के स्कूबल में पढ़ाने के कारण अपने घर-परिवार और हिंदी भाषी मित्रों में आज तक लतियाया जा रहा हूं। जोशी जी मुझे लगता है गलती यह है कि हम हिंदी की बात करते हैं दरअसल बात हिंदी की नहीं है भारतीय भाषाओं की भी नहीं है बात है भारत की, हिंदुस्ताहन की है जिसका झंडा ही रह गया है जो चुटकले की भाषा में अंग्रेजों या अंग्रेजी के डंडे में फंसा है। हम अनेक भाषाओं वाला देश हैं और हर भाषा और बोली एक संप्प न सांस्कृमतिक विरासत की वाहक है। परंतु हमें अपनी किसी भी बात के लिए कोई स्वागभिमान नहीं है। इतिहास गवाह है हमने कभी कुछ जीतना नहीं चाहा। लोग आते रहे हमें जीतते रहे, हम पर राज करते रहे। जीतना तो बड़ी बात है हमने कभी कुछ सहेजने की भी कोशिश नहीं की। यह तो हमें विरासत में इतना मिला है कि इतना लूटे जाने के बाद अब भी बहुत बाकी है। पर अब नहीं बचेगा इस बार हमला राजनीतिक नहीं सांस्कृकतिक है और शिक्षा पर है। निशाने पर अगली पीढ़ियां हैं और हम मानसिक रूप से पराजित हो चुके हैं।
    चूंकि हमला शिक्षा पर है तो जवाब भी वहीं से देना होगा। प्रा‍थमिक शिक्षा तक से बेदखल हो चुकी हिंदी और भारतीय भाषाओं को कम से कम एक विषय के रूप में पढ़ना अनिवार्य होना चाहिए। आरटीई का भी दुरपयोग हो रहा है क्योंूकि शिक्षा के अधिकार
    पर बात हो रही है पर शिक्षा कैसी हो इस पर कोई बात नहीं है और ना ही शिक्षा में समानता की बात हो रही है। शिक्षा के नाम पर अंग्रेजी और सांमतबाद थोपा जा रहा है। कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है। विदेशी शिक्षा बोर्डों की क्याा जरूरत है, जो हमारे पाठयक्रमों से खेल रहे हैं हमारी भाषाओं को पढ़ाने से बचने के लिए कानूनी लड़ाईयां तक लड़ रहे हैं।
    आप सोच रहे होंगे बात हिंदी की हो रही है और मैं स्कूेलों और शिक्षा रोना रो रहा हूं। मुझे लगता है गाय-भैंस होंगी तो दूध भी होगा, छाछ, मक्खरन, घी के साथ-साथ पनीर,चीज, खोआ भी बनाया जा सकता है। इसी तरह जब हम हिंदी में काम करने लगेंगे तो इस तरह के आदेशा फाईलों में भी नहीं टिक पाएंगे। तब तक राम ही जाने, अल्लाे ही मालिक है। - कुशल कुमार

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