Monday, October 17, 2011

शहरियों की सैर




पिछले कुछ समय से आप यहां डायरी के अंश पढ़ रहे हैं. 
लगभग एक दशक पुरानी डायरी. यह इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी है. 


सागर तट पर शाम को पर्यटक होते हैं। सुबह सवेरे स्वास्‍थ्‍य के प्रति जागरूक लोग होते हैं। उनमें भी ज्‍यादातर खाए पीए अघाए लोग। सुबह उठते समय जिन्हें खट्टे डकार आते हों, कमर सीधी न होती हो, घुटने साथ छोड़ने छोड़ने को हों, शरीर आपे से बाहर जा रहा हो, वे सब धोबी से धुली, इस्त्री की हुई सफेद निक्करें और टी शर्ट पहन कर , बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जागिंग जूते-मौजे पहन कर तट को घंटा घंटा भर रौंदते रहते हैं। बाज शौकीन लोग तो कान में ईयर फोन भी घुसेड़े रहते हैं। तार उनकी जेबों में घुसी होती है। वे कोई संगीत सुन रहे होते हैं जैसे उनके पास वक्त की बेहद कमी हो। जुहू बीच पर सुबह साढ़े छह से साढ़े सात बजे तक बेहद भीड़ होती है। दूर तक नर दौड़ाइए। मेले का सा ही आलम होता है। प्रकृति का ही रूप है सागर। अथाह विस्तार। समतल। उसके किनारे रेतीले तट। तट पर भीड़।
प्रकृति का एक और भव्य विराट रूप है पहाड़। वह भी वाज जगह अवितिज  फैला होता है। पर उस पर चढ़ना आसान नहीं होता। पर पहाड़ की तराई में या घाटी में तट जैसा समा नहीं बंध सकता। क्या पहाड़ में भी सैर के शौकीन कभी इस तरह भीड़ जमा कर सकते हैं। शायद नहीं। सैर के लिए कुछ हद तक समतल जगह ढ़ूंढनी ही होगी। या पगडंडी हो, या सड़क हो। ज्‍यादा चढ़ाई में सैर हो नहीं पाती। चढ़ना ही आसान नहीं होता।
सैर करना शहरी व्यक्ति का शौक है। जो वक्त के साथ जरूरत बन जाता है। जो आदमी शारीरिक श्रम करता है, उसे सैर की जरूरत नहीं। जो गांव देहात से आया हो, उसे भी सैर वक्त की बर्बादी लगता है। जब काम से चलना हो तो मीलों चल लेगा। बिना काम के चलना खीझ पैदा करता है और नकारपन का भाव भी पैदा करता है। शहरी और ग्रामीण आदमी की जीवन शैली का भेद है। यह भेद खान पान, कपड़े लत्ते , सोने जागने, उठने बैठने, बोलने चलने, पढ़ने लिखने, पानी सानी संपूर्ण जीवन शैली में है। 
11-5-99

4 comments:

  1. "सैर करना शहरी व्यक्ति का शौक है"....बिलकुल सच कहा आपने...मोटे-थुलथुल खा-पी कर अघाए लोग मुंबई या ऐसे दुसरे शहरों में सैर करते दिखाई देते हैं...गाँव के लोगों को सैर की क्या जरूरत...सच्ची बात...

    नीरज .

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  2. जब सारा दिन बैठ कर बिताना हो तो सैर कर लेनी चाहिये।

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  3. बात तो आपकी सही लगती है। दस साल पुरानी डायरी अगर पूरी हुई तो अब डायरी नियमित लिखें।

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  4. यहां आने के लिए सभी का धन्‍यवाद. और आपका टिप्‍पणी करने के लिए विशेष धन्‍यवाद. आप तीनों की बातें ठीक लगती हैं.
    नीरज जी, शहरी जीवन शैली ने ही सैर को जन्‍म दिया होगा. अब तो खैर सैर करना एक काम जैसा हो गया है, सेहतमंद रहने के लिए, लेकिन पहले सैर में फुर्सत जैसा, तफरीह जैसा भाव भी था. जैसे बुद्धिजीवी लोग शाम को टहलने निकल जाया करते थे. प्रवीण जी की बात से भी यही पता चल रहा है. और अनूप जी, डायरी लिखने में मजा आता है. पर नियमित ल‍िखने में यांत्रि‍कता आने का डर भी रहता है. मेरे हिसाब से रोजनामचा लिखना डायरी लिखना नहीं है. नेमी जीवन से कुछ अलग हो, जिससे बाद में हमें कुछ दृष्टि मिले, उसी तरह की डायरी मुझे काम की लगती है.

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