Friday, October 7, 2011

हैं और नहीं हैं



पिछले कुछ अर्से से डायरी के कुछ अंश लगा रहा हूं. 
ये दस साल से ज्‍यादा पुराने हैं. हमारा वक्‍त बहुत तेजी से बदल रहा है, यह सच है पर बहुत कुछ वैसा ही है, 
यह भी तो उतना ही सच है.

फल वाले के पास एक व्यक्ति आया। सेब के दाम पूछे। संतरे के पूछे। ज्‍यादा भाव-ताव नहीं किया। दो सेब ले लिए। फलवाले ने तोल के देने की बात कही- पाव किलो संतरे तो तुलते नहीं। वह बीस या तीस रुपए दे के चला गया। ये रुपए उसने कष्ट से ही निकाले होंगे। पर अपरिहार्य मानकर निकाले होंगे। जरूर घर में कोई बीमार होगा। बच्चा होगा। पत्‍नी पति या मां-बाप का काम बिना फलों के भी चल जाता है। बीमारी में भी। बच्चों की बीमारी में पेट काटकर फल लाए जाते हैं। यूं शहर में फलों के अंबार लगे हैं। खरीदने खाने वालों की भी कमी नहीं। पर न खा पाने वालों की कहां कमी है। वे तो खा पाने वालों से ज्‍यादा ही होंगे।

और डाक्टरों को एक ही काम होता है। कोई बीमार हो तो पहली सलाह होगी- फल दीजिए या फलों का रस दीजिए। फलों में भी सेब या संतरा। अमरूद नहीं दे सकते। केला नहीं दे सकते। जो अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं।

फल हमारी जनता की रोजाना खुराक का हिस्सा नहीं है। मिलता ही कहां है। मिलता तो है खरीदने के पैसे नहीं होते। एक ही बात है। मुफ्त में मिल नहीं जाएगा। खरीदने की ताकत ज्‍यादा नहीं है। मेहनतकश लोग हैं। फल जल्दी पचता है। उससे पेट नहीं भरता। उसे तो भरे पेट वालों का ही पेट भरता है। भोजन ऐसा चाहिए जो भूख जल्दी न लगाए। अन्न ही उपयोगी है। इसलिए फल बीमारी के लिए ही है। बीमारों की गिजा। तो क्या भर पेट लोग ही बीमार हैं? उनसे क्या लेना देना। यह कुतर्क हो जाएगा। मुद्दे की बात यह है कि मेहनतकश को भी फल मिलना चाहिए। बीमारी में ही नहीं। सहेतमंदीं में भी मिलना चाहिए। पर निकट भविष्य में तो यह संभव होता नहीं दिखता।

तो उस दिन उस भाई को दो दो सेब संतरे खरीदते देख बड़ी कटार सी लगी। मैं भी फल खरीद रहा था। एक पूरा तरबूज, एक पूरा पपीता और अंगूर।

बहुत शर्म आई।

ऐसी व्यवस्था में फंसे हैं। 'है और नहीं है' का फर्क बड़ा है। बड़ा खराब लगता है। अब यह भी संभव नहीं है कि अपने पास जो है, उसे दे दें। किस किस को देंगे। सर्वाइव कैसे करेंगे। क्या इसी ऊहापोह के साथ रहना होगा।
 14-2-99

4 comments:

  1. सब अपनी किस्मत का लिखवाकर लायें हैं सबको अपना ही हिस्सा खाना है और जीना है |

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  2. अन्न कहीं है, कहीं फल है।

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  3. अनूप जी, आपने यह १९९९ में लिखा है और आज भी यह उतना ही सामयिक है. आज भी फल गरीब आदमी की पहुँच से बाहर हैं. फल क्या सब्जी, रोटी दाल का भी वही हाल है. दस सालों में कुछ खास नहीं बदला गरीब के लिए.. हाँ सेंसेक्स काफी ऊपर गया है, मनमोहन जी कहते हैं जी. डी. पी. भी बढ़िया है. क्या इन्ही से तरक्की मापी जाए?

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  4. आप ठीक कह रहे हैं राजीव जी, इन बीते सालों में हालांकि मध्‍यवर्ग का बहुत ज्‍यादा विस्‍तार हुआ है पर गरीबी भी बहुत बढ़ी है. मनमोहन और उनकी सरकार आंकड़ों से ही दुनिया बदल देना चाहते हैं.

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