सोफिया कालेज के अंग्रेजी और हिंदी विभाग ने मिल कर रहस्य काव्य और सामाजिक रूपांतरण पर दो दिन की गोष्ठी 14 और 15 जनवरी को की. इसमें अकादमिक पर्चों के साथ साथ फिल्म, नृत्य और संगीत को भी शामिल किया गया. जैसे अक्का महादेवी पर डाकुमेंटरी दिखाई गई. आंदेल के पदों पर भरतनाट्यम् हुआ. ललद्यद पर पर्चे के बाद उनके वाखों की ऑडियो प्रस्तुति हुई. व्याख्यानों में जहां कबीर सूर तुलसी मीरा पर बात हुई, वहीं सूफी परंपरा और बुल्लेशाह, ललद्यद, अक्का, आंदेल के बारे में भी जानने को मिला. कुछ इसाई संतों पर भी प्रकाश डाला गया. चर्चाएं रहस्य, भक्ति और उसके सामाजिक पहलुओं पर हुईं.
इसमें आयोजन से जुड़ी हुई कुछ बातें ध्यान खींचती हैं. हरेक सत्र में सभापति का काम प्रश्न-उत्तर करवाना मात्र होता था. वह अध्यक्षीय वक्तव्य नहीं देता था. शायद इसीलिए उन्हें वयोवृद्धों को अध्यक्ष बनाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. इससे समय की बचत हुई और श्रोता उक ही तरह की बातों को दुबारा सुनने से बच गए.
दूसरे, सारे कार्यक्रम में छात्राओं की भूमिका जबरदस्त थी, वालंटीयर के रूप में, अतिथियों को गेट पर रिसीव करे हाल में बिठाने तक, मंच पर वक्ताओं को स्मृतिचिह्न देने में और हाल में प्रश्न पूछने वालों के पास माइक ले जाने में वगैरह.
तीसरे, समय की पाबंदी. व्याख्यान के पच्चीस मिनट होने पर सभापति घंटी बजा देता था और वक्ता अपनी बात का समाहार करने को बाध्य हो जाता था.
यह जानकारी इसलिए दे रहा हूं क्योंकि हिंदी के सेमिनारों में प्रायः इस तरह का अनुशासन नहीं दिखता. अगर हिंदी के सेमिनार भी इसी तरह चुस्त-दुरुस्त और चाक-चौबंद होने लग जाएं तो कितना अच्छा हो.
प्रशंसनीय और स्वागतेय.
ReplyDeleteबात तो ठीक है.
ReplyDeleteऐसा ही हो तो सचमुच अच्छा हो!!!!!!!!!!
ReplyDeleteसमय की पाबन्दी वाली पढ़ कर बहुत अच्छा लगा...शायद ये इसलिए संभव हो पाया क्यूँ की कोई राजनेता इसमें आमंत्रित नहीं था...काश सभी कार्यक्रम इसी प्रकार संपन्न हों...
ReplyDeleteनीरज
धन्यवाद मित्रो, राजनेता नहीं था, साहित्य के नेता भी काफी फुटेज खाते हैं, संयोग से वहां ऐसा भी कोई नहीं था.
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