Friday, October 1, 2010

अंतहीन इंतजार




मुंबई की एक नाटय संस्था मोटली ने वेटिंग फार गौडो नाटक को इस बार (पिछले साल) फिर से तैयार किया है। पहले यह 1979 में खेला गया था। इस संस्था की शुरुआत ही वेटिंग फार गौडो से हुई थी। नसीरूद्दीन शाह और बेंजामिन गिलानी मोटली के संस्थापक हैं। यह नाटक गिलानी ने निर्देशित किया है।


वेटिंग फॉर गौडो को थियेटर ऑफ एब्सर्ड यानी विसंगत थियेटर का महत्वपूर्ण नाटक माना जाता है। इस नाटक ने पुरानी नाटय शैली को बदल दिया। इस में कहानी यानी प्लाट ही नहीं है। मंच पर कुछ घटित नहीं होता। दो मुख्य पात्र गोगो और डीडी फिजूल सा वार्तालाप करते रहते हैं। वे एक निर्जन स्थान पर हैं जहां सिर्फ एक सूखा हुआ पेड़ है। वे गौडो का इंतजार कर रहे हैं। उन्हें कुछ भी नहीं करते हए इंतजार करना है। कुछ न करते हुए भी साथ तो रहना है। वे एक दूसरे से बार बार ऊब जाते हैं। पर उन्हें साथ तो रहना ही है। थोड़ी देर बाद एक जमींदार किस्म का व्यक्ति पोजो और उसका गुलाम लकी मंच पर आते हैं। थोड़ी देर तक उनका मन बहलता है लेकिन फिर वैसे ही ऊब और उदासी उन पर तारी हो जाती है। शाम को एक बाल चरवाहा आकर सूचना देता है कि आज गौडो नहीं आएगा। अगले अंक में फिर वही सब कुछ होता है और शाम को फिर गौडो का संदेश आ जाता है। इन्हें सिर्फ इंतजार करना है।

इस नाटक की विश्वयुद्धों के दौरान पैदा हुए वैचारिक और दार्शनिक खालीपन के संदर्भ में बहुत व्याख्याएं हुई हैं। अस्तित्ववाद से लेकर, विचारधारा के अंत और उत्तरआधुनिकता तक की अर्थछटाएं इस नाटक में मौजूद हैं। असल में जीवन की अर्थहीनता को यह नाटक नए ढंग से पेश करता है। दोनों पात्र भिखारियों की तरह हैं। थके-हारे, ऊबे हुए लेकिन जिए चले जाने को अभिशप्त। उन्होंने चिथड़े पहने हुए हैं। महीनों से नहाए नहीं हैं। उनके पास खाने को कुछ नहीं है। और वे आपस में बातें कर कर के जीवन में कुछ रस पैदा करने की निरर्थक कोशिश करते रहते हैं। इस कवायद में भदेस पैदा होता है। वे हर चीज को रिडिक्यूल कर देते हैं। इस दृश्य के बीच पोजो नामक काउंटी और उसका गुलाम कंट्रास्ट पैदा करते हैं। जमींदार और गुलाम के कार्य-कारण संबंध व्यवस्था पर टिप्पणी की तरह हैं। गुलाम सोचने का काम भी करता है। आम तौर पर वह बोलता नहीं है। जब सोचता है तभी बोलता है। बल्कि बोल कर ही सोचता है। कुतूहलवश उसे सोचने के 'काम' यानी बोलने के काम पर लगाया जाता है तो वह अपना अनर्गल प्रवचन शुरू कर देता है। वह बीसवीं सदी के सार-संक्षेप को किसी कूट भाषा में उगल देता है। बोलते बोलते वह उत्तेजित और अनियंत्रित हो जाता है। उसके मालिक को पता नहीं कि उसे रोका कैसे जाए। उसकी कूट भाषा को कांच की किरचों और छर्रों की तरह बरसते शब्दों के माध्यम से ही खोला जा सकता है। लेकिन पात्र और दर्शक दोनों इसे एक गुलाम का भाषाई स्खलन मानकर मनोरंजन पाते हैं। कोई उसके क्रंदन को, उसके सोच को समझने की कोशिश नहीं करता।

दूसरे अंक में रस्सी का पट्टा मालिक के गले में है और उसे गुलाम हांक रहा है। नाटककार ने मालिक गुलाम के सामाजिक परिप्रेक्ष्य को भी रिडिक्यूल कर दिया है। सारी परिस्थिति ही गड्डमड्ड है।

26 जुलाई 2009 को पृथ्वी थियेटर में हुए प्रदर्शन में पोगो की भूमिका में बेंजामिन गिलानी और डीडी की भूमिका में आकाश खुराना थे। पोजो का रोल नसीरूद्दीन शाह ने निभाया। गुलाम के रूप में शायद संदीप हुडा थे।

वेटिंग फॉर गौडो का जिस तरह कथ्य अलग है, इसके निर्देशक और अभिनेताओं से भी अलग तरह की अपेक्षाएं हैं। देह भाषा और संवाद अदायगी कथ्य को मुखर करती है। दोनों प्रमुख अभिनेता अपने अपने पात्र को जीवंत कर देते हैं। पोजो और गुलाम का अभिनय भी कथ्य को मुखर करता है। जो मस्ती पोगो में है, और जो बेचैनी डीडी में है, इससे दोनों का सह-अस्तित्व पूर्ण होता है। नसीरूद्दीन शाह के अभिनय में गजब की ऊर्जा और चपलता है। बेंजामिन गिलानी का निर्देशन नाटक को एक अनूठी जीवंत दृश्य रचना में बदलता है। नाटक में कहानी, पात्रों और संवादों का वैसा पारंपरिक किस्म का सहारा नहीं है, कि निर्देशकीय ढीलापन या कमियां खप जाएं। यह नाटयालेख अपने आप में इतना बीहड़ और चुनौती भरा है कि अगर इसके लिए निर्देशक और अभिनेता अपनी लय न पकड़ पाएं तो सारा का सारा ढांचा बिखर जाए। जब कथ्य में ऊब और निरर्थकता हो, तो चुनौती उसे संप्रेषित करने की है। ऊब और निरर्थकता को नाटय अनुभव में बदलना अभिनेता और निर्देशक का दायित्व है। इसमें भदेस का सहारा बहुत कारगर सिद्ध होता है। विदूषक भदेस का सहारा लेकर अपनी बात मजे से कह जाता है। दर्शक उसे मजाक मजाक में पकड़ लेता है। यहां भी यह गुर काम आया है। सिर्फ गुलाम ही अलग तरह का चरित्र है। उसमें जमी हुई वेदना है, जो जुगुप्सा की तरफ तो जाती है, भदेस में तब्दील नहीं होती है। बाकी तानों पात्र भदेस विदूषकत्व के सहारे दर्शक को बांधे रखते हैं। मुख्य पात्रों का परिधान और उनके संवाद भी कथ्य और दृश्य दोनों का कंट्रास्‍ट पैदा करते हैं। दर्शक के मन में जिज्ञासा पैदा होती है। यह तत्व भी दर्शक को जोड़े रखने में सहायक है। दृश्यबंध का खालीपन, पर्णहीन वृक्ष और प्रकाश इस नाटक को सघन बनाते हैं। पूरा नाटक मिलकर एक अलग ही तरह के अनुभव में बदल जाता है।

(पृथ्वी थियेटर, 26 जून, 2009 का नौ बजे का प्रदर्शन)








पहला फोटो गार्जियन से साभार, दूसरा और तीसरा मोटली ग्रुप के प्रदर्शनों के, इंटरनेट से

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