Thursday, July 15, 2010

शिक्षा का अधिकार - उज्‍ज्‍वल भविष्‍य की उम्‍मीद


सूचना के अधिकार के बाद शिक्षा का अधिकार भी हमारे बुनियादी हकों में शामिल हो गया। महिला आरक्षण विधेयक भी कानून बनने की प्रक्रिया में है। ये ऐतिहासिक निर्णय हैं जो आने वाले समय की दिशा और दशा तय करेंगे। इन्हें हमारे सामाजिक जीवन की एक नई सकारात्मक शरुआत भी माना जा सकता है। ऊपरी तौर पर यह मामूली से निर्णय लगते हैं लेकिन सूचना के अधिकार की ही मिसाल लें तो यह एक ऐसा शक्तिशाली हथियार साबित हो सकता है जिसके बल पर सत्ता के लौह द्वार को खोलना भले ही संभव न हो, पर उसे जालीदार तो बनाया ही जा सकता है। शर्त यही है कि इस कानून का गलत इस्तेमाल करके इसे काउंटर-प्रोडक्टिव न बना दिया जाए।
जहां तक शिक्षा की बात है, शिक्षा इन्सान की कैमिस्ट्री ही बदल देती है। जीवन तो कुदरत से मिल जाता है पर जीवन जीने का सलीका शिक्षा देती है। यह हमारा दुर्भाग्य रहा है कि आज तक शिक्षा सबके लिए समान स्तर पर उपलब्ध नहीं रही। इसका व्यापक जन हित में उपयोग नहीं हो पाया। विशेषाधिकार के तौर पर दुरुपयोग ज्यादा किया गया। ऐसे में शिक्षा का यह बुनियादी अधिकार हमारी विकासयात्रा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।
हमारे देश में जब आधुनिक शिक्षा व्यवस्था गांव-गांव में दस्तक दे रही थी, उसी समय उच्च-भ्रू लोगों के लिए अंग्रेजी पब्लिक स्कूलों की संस्कृति भी अपनी जड़ें जमा रही थी। आखिर अंग्रेज और उनके हाकिम यह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे कि भारतीय देहाती और गंवारों के बच्चे उनके बच्चों की बराबरी करें। इसलिए दो तरह की शिक्षा व्यवस्था बनायी गयी जो आज तक अपने दोनों उद्देश्यों को पूरा कर रही है। एक तो यह कि आभिजात्य वर्ग की ऐंठन बरकरार रहे। उसकी संतानें नौकरों की संतानों की छूत से दूर रहें। दूसरे, पीढ़ी दर पीढ़ी मालिकों की संतानें मालिक, और नौकरों की संतानें नौकर बनती रहें। आजादी के बाद जैसे-जैसे मध्य वर्ग अमीर होता गया, अंग्रेजी पब्लिक स्कूलों की संस्कृति सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को तोड़ती गयी। और आज यह मरणासन्न अवस्था में है। इसके बरक्स देश के हर गली-कूचे में आपके बजट की शिक्षा की दुकान उपलब्ध है। ऐसे में शिक्षा के मौलिक अधिकार का कानून शायद सरकारी स्कूलों के लिए संजीवनी का काम कर जाए।
दरअसल होना तो यह चाहिए कि शिक्षा के अधिकार के साथ-साथ शिक्षा में बराबरी की बात की जाए। एक जैसी शिक्षा ही समतामूलक समाज का आधार रख सकती है। आज भी एक तरफ टाट-पट्टी पर और पेड़ के नीचे चलती वर्नाकुलर (देसी भाषाओं के लिए औवनिवेशिक गाली) यानी देसी भाषाओं की पाठशालाएं हैं जो बच्चों के साथ खिलवाड़ के सिवा शायद ही कुछ करतीं हों। दूसरी तरफ विदेशी बोर्डों के पांच सितारा स्कूल हैं जो विदेश जाने के एक्सक्लूसिव हाई-वे का काम करने वाले हैं। शिक्षा के सांस्कृतिक पहलू पर नजर डालें तो भारतीय शिक्षा का लार्ड मैकाले का प्रयोग पूरी तरह से सफल रहा है। उनकी शिक्षा व्यवस्था ने हमारे भीतर की भारतीयता का अंग्रेजीकरण कर दिया है। अब तो हमारी सारी सांस्कृतिक और भाषाई विरासत संकट में है। इस महादेश की बहुसंख्या खेतीबाड़ी पर निर्भर रही है। काश! हमारी शिक्षा दस हजार साल पुराने इस पारंपरिक पेशे को इज्जत से देखने का संस्कार दे पाती। शिक्षा ने अपने ही समाज को अपनी ही नजरों से गिराने का गुनाह किया है और बाबूगिरी की झूठी अकड़ सिखाई है। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी, जो आधुनिक शिक्षा संदर्भों का भारतीयकरण करते हुए उन्हें हमारी शिक्षा और जनजीवन का हिस्सा बनाए।
शिक्षा के कानून को लागू करने के लिए भौतिक संसाधनों की जितनी जरूरत है, शिक्षा के सच्चे अर्थों की तलाश और उन पर अमल करने की उससे कहीं ज्यादा जरूरत है। सरकारी, गैर सरकारी और निजी क्षेत्र को मिलकर यह भगीरथ प्रयास करना होगा। जहां जहां, जो जो एजेंसी अच्छा काम कर रही है, उसके लिए और ज्यादा काम करने का माहौल मुहैया कराना होगा। आने वाले दशकों में भारत की युवा जनसंख्या विश्व में सबसे ज्यादा होने वाली है। युवा वर्ग को शिक्षा से ही सशक्त बनाया जा सकता है। अखिल समाज को अपने बच्चों को सुशिक्षित और चेतनासंपन्न व्यक्ति बनाने का संकल्प लेना होगा।
पिछले दिनों प्रेमकुमार धूमल के नेतृत्व में हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने पहाड़ी भाषा को आठवीं अनुसूची हेतु अनुमोदित करने का प्रस्ताव बहुमत से पारित कर दिया (हालांकि विपक्ष उस समय सदन में मौजूद नहीं था)। प्रदेश के लिए यह एक ऐतिहासिक कदम है। देर आयद् दुरुस्त आयद्। पहाड़ी में लिखित साहित्य कम है पर वाचिक परंपरा का खजाना भरा हुआ है। उसे अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी हम सब पर है। अब प्रदेश की सरकार और जनता को अगली रूपरेखा बना लेनी होगी। हमारा प्रस्ताव है कि इसे पहाड़ी ही कहा जाए। जम्मू में डोगरी है, उत्तराखंड में गढ़वाली कुमांउनी। पहाड़ी हिमाचल की ही है। दूसरे, जितना जल्दी हो, विश्वविद्यालय में पहाड़ी भाषा अध्ययन केंद्र बनाया जाए। तीसरे, भाषा संस्कृति अकादमी को सरकारी चंगुल से मुक्त करके नवजीवन प्रदान किया जाए। हिमभारती को नियमित और मासिक पत्रिका बनाकर पेशेवर हाथों में सौंपा जाए। युवा महोत्सवों और फैस्टिवलों में पहाड़ी भाषा को जगह दी जाए। रचनात्मक साहित्य के लेखन, प्रकाशन और विपणन की व्यावहारिक कार्य योजना बनाई जाए और लागू की जाए।
इस अंक में शिक्षा का अधिकार कानून पर आमुख कथा के साथ साथ हिमाचल के गुणी बांसुरीवादक राजेंद्र सिंह गुरंग से बातचीत है। यह बातचीत भी शिक्षा के सच्चे, गहन और वृहद् अर्थों को उद्भासित करती है। मेरी प्रिय कहानी में सुंदर लोहिया को प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है। साहित्यकार और कार्यकर्ता के तौर पर लोहिया युवा पीढ़ी के आदर्श हैं। विख्यात आलोचक चिंतक रमेश कुंतल मेघ के रेखांकन छापना हमारे लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है। ये रेखांकन साठ वर्ष पूर्व उनकी युवावस्था के भावालोड़न हैं। आवरण को देश के विख्यात चित्रकार जे पी सिंघल की कृति से सजाने का सुअवसर पाना तो मानो सोने पे सुहागा है। आवरण के भीतरी पन्ने पर रंगीन चित्र विजय शर्मा की पहाड़ी कलम का कमाल है। इस बार कला-साहित्य के कुछ आयोजनों को कला-परिक्रमा में दिया जा रहा है। प्रदर्शनधर्मी कलाओं को हम समादृत करना चाहते हैं। विचार मंथन में केशव की कहानी पर और रेखा के पत्र के बहाने से पत्रिका में चित्रों पर विचार-विमर्श है। कुछ स्तंभ इस बार छूट गए हैं। अंक भी देरी से आ रहा है। इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

7 comments:

  1. यह सही है कि अंग्रेजी मीडियम के पब्लिक स्कूलों की संस्कृति ने आभिजात्य की ऐंठन को और ज्यादा बल दिया है. आपका संपादकीय सुचिंतित एवं तथ्यपरक है.

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  3. anoop ji ! bahut dino baad -yanha mile aap....pls mail me
    thanks.ravishekhar@gmail.com

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  4. परमेंद्र जी और रवि जी, धन्‍यवाद. अच्‍छा संयोग है परमेंद्र हिमाचल मित्र के इस अंक से आप मिले. और खोए हुए मित्र रवि आप भी फिर से मिले.

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  5. यहां आकर अच्‍छा लगा।

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  6. अहुत बहुत धन्‍यवाद

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