Tuesday, December 15, 2009

अम्‍मा पुछदी

मोहित चौहान का एक मनमोहक पहाड़ी गीत अम्‍मा पुछदी कबाड़खाना पर रखा गया था. उसमें कुछ पाठ भेद हो रहा था. गीत मां बेटी के बीच संवाद है. मां पूछती है कि धीए तू इतनी बड़ी कैसे हो गई. बेटी कहती है कि पारली तरफ मोर बोलते हैं जिन्‍होंने नींद उड़ा दी है. मोर का बोलना और नाचना बड़ा रोमांटिक बिंब है. मतलब बेटी प्‍यार में पड़ गई है. मां इन्‍ा मोरों को मार देना चाहती है, बेटी पिंजरे में डालना चाहती है. प्रेम में चांद तारों की तरह लुका छिपी का खेल है. पर मां जानती है कि चांद तारे तो छुप जाते हैं, दिलों के प्‍यारे छुपाए नहीं छिपते. संयोग से यह गीत और मोहित चौहान पर थोड़ी सी सामग्री हमने हिमाचल मित्र के शरद अंक में दी है. इस पूरे गीत को फिर से पढ़वाने और पत्रि‍का के इस पन्‍ने को यहां रखने का मोह छूट नहीं रहा. इसलिए आप भी इसे देखें और पढ़ें. वैसे मोहित के नए एलबम फितूर में भी एक पहाड़ी गीत है, वह भी बहुत मधुर है.(ठीक से पढ़ने के लिए नीचे चित्र पर क्लिक करें.)






7 comments:

  1. क्या संयोग है अभी थोड़ी ही देर पहले हम अपनी छत पर दिसंबर के मध्य की जाती हुई धूप का गुनगुनापन महसूस करते हुए मोहित चौहान और इस गीत की बात कर रहे थे मेरी बेटी ने 'हिमाचल मित्र' के शरद अंक में छपे आलेख को पढ़कर सुनाया भी और अब जब छत से नीचे आकर कंप्यूटार खोला तो आपकी यह पोस्ट ! और अब हम लोग अपने बेटे की फरमाइश पर 'मसक्कली' सुन रहे हैं!

    'कबाड़खाना' का मैं भी एक फेरीवाला हूँ ।अपने मुखिया अशोक पांडे जी को इस पाठ भेद के बाबत बताउंगा और कोशिश रहेगी कि इसे दूर कर लिया जाय! वैसे अशोक ने वहाँ एडवांस में ही अनुवाद की खामियों के बाबत माफी की संभावना तलाश ली थी -"अनुवाद की ख़ामियों के लिए मैं ज़िम्मेदार हूं."

    शुक्रिया अनूप जी!

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  2. सच कहिये तो लोकगीतों में तो जैसे खुद सरस्वती बोलती हैं

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  3. प्रिय सिद्धेश्‍वर जी, खामी इतनी बड़ी नहीं कि सुधारा जाए. वो तो मुझे मौका मिला कि इस गीत के पाठ में फिर से गोता लगा लूं.

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  4. अनूप जी, भाषा आप लोगों की है , गुस्ताखी माफ, मेरी यादआश्त अगर ठीक है तो, ईश्वर जो गाता था, अशोक पाण्डे वाले पाठ के ज़्यादा निकट था. मसलन - दुबड़ी, बणेया, एता, पुवाणा, धिये भला , और भी बहुत कुछ. हो सकता है, उसी असर की वजह से मुझे मोहित वाला वर्जन भी हिमाचल मित्र वाले पाठ से बहुत मिलता नही दिखता.
    मुझे सही सही याद है कि तू बड़ी और दुबडी को ले कर एक बार कुछ पहाड़ी छात्रों में जम कर बहस हुई थी. लेकिन ईश्वर ने यह कह कर बहस खतम कर दी थी कि यह मेरे इलाक़े का गीत है, और हमारे में यह दुबड़ी ही है. ईश्वर चोराह या भरमौर क्षेत्र का रहने वाला था . खैर उन दिनों मेरे पास एक बाँसुरी होती थी ,और् पहाड़ी न समझ सकने का कोई ग़म नही था मुझे. आप के इस पोस्ट ने थोड़ा सोचने पर मज़बूर कर दिया है.

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  5. प्रिय अजेय जी,
    धन्‍यवाद.
    मैं ही गलत हूं. यू ट्यूब में यह गीत सुन सुन कर मैंने ही यह पाठ बना डाला और कबाड़ी मित्रों के बीच भी दखल दिया. भाई सिद्धेश्‍वर जी से भी माफी मांगता हूं.
    अजेय, आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर मैंने मंडी में केशव चंद्र जी को फोन किया. उनके कहने पर चंबा में विजय शर्मा जी से बात की. आपके पाठ की पुष्टि हुई.
    अब मेरे दिमाग की खिड़की खुली. मैं सोचता था. बेटी बड़ी हो गई, प्रेम में पड़ गई. लेकिन मामला यह नहीं है, नायिका प्रेम में दुबली हुई है.
    खेद इस बात का भी है कि हमने हिमाचल मित्र में 'तू बड़ी' वाला ही पाठ छापा है. अगले अंक में इस भूल का सुधार करना होगा. भाई विजय शर्मा से निवेदन किया है कि इसका प्रामाणिक या प्रचलित पाठ हमें उपलब्‍ध करा दें.
    इस प्रसंग से यह सबक भी मिला कि लोक गीतों के पाठ को किसी जानकार व्‍यक्ति से लेना चाहिए. और सबसे बड़ा सबक यह कि खुद को हरफन मौला समझने की बेवकूफी नहीं करनी चाहिए.
    क्षमा और आभार
    अनूप

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  6. मोहित चौहान का ही एक अन्य गीत आज सुनने को और मिला जिसमें चम्बा जाने का जिक्र है। बेहद खूबसूरत अंदाज में गाया गया। हिमाचल मित्र का अंक मिल गया है, अभी उन पर लिखे आलेख को देखा नहीं था, अब तो पढने का मन है और भी। पत्रिका और ब्लोगों के मार्फ़त इस तरह से विविधता से भरी दुनिया को जानना बहुत ही सुखद है।

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  7. # अनूप, बड़े भाई, इतनी बड़ी लापरवाही के लिए मैं आप को क्षमा नहीं कर सकता.
    # आपको, जो गल सुणा जैसा सधा हुआ कॉलम लिखते हैं.
    # आप को , जिस ने पहाड़ी भाषा जैसे मृतप्राय मुद्दे को आपनी पत्रिका मे ज़ोरोशोर से पुनर्जीवित करने का प्रयास किया.
    # आप को , जिस के खून में अम्मा पुच्छदी नामक गीत घुला हुआ होना चाहिए.
    # आप को, जिस ने "जगत का मेला " संग्रह में सुन्दर शृंगार कविताएं लिखीं.
    दूसरी बात ,
    # क्षमा मुझ से न माँग कर हिमाचल मित्र के उन तमाम गम्भीर पाठकों से माँगिए,जो इस पत्रिका को उम्मीद से देखते हैं. और यहाँ न मांग कर उसी मंच पर माँगें.
    # सिद्धेश्वर से न माँग कर अशोक पाण्डेय से माँगिए, कबाड़ खाने में जा कर के, क्यों कि मुद्दा कबाड़ खाने वालों का था. यह ईमानदारी का तक़ाज़ा है. ई- मेल या फोन करना तो अपना पल्ला झाड़ना हो जाएगा.
    # और मेरी उस बाँसुरी से माँगिए, जिसे आज तक मैं ने बड़ी हिफाज़त से सहेज कर रखा है.
    और उस माफी नामे में मेरे उस गद्दी दोस्त ईश्वर का भी ज़िक्र कर दीजिए , जो उन दिनों PEC चण्डीगढ़ मे पढ़्ता था, और आज किसी एयर कंडीशंड ऑफिस में बैठ कर मल्टीनेशनल बीड़ी पीता होगा.
    # विजय भाई, हिमाचली संस्कृति का उत्स खोजना हो तो चम्बा जाना ही पड़ेगा. चाहे वो मोहित चौहान हों या कोई आउटसाईडर.....

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