Tuesday, December 1, 2009

संगठन, लेखकों के कवच-कुंडल बनें


लेखन भले ही ऐकांतिक कार्य हो लेकिन उसकी एक महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका भी है। रचना का पाठक तक पहुंचना निश्चित रूप से एक सामाजिक गतिविधि है। आज हिंदी लेखक बहुत ज्यादा हाशिए पर आ गया है। उसकी प्रासंगिकता का भी संकट खड़ा हो रहा है, जबकि अगर आज की शब्दावली में लेखन एक प्रोफेशन भी है। शौकिया भी है और प्रतिबद्ध प्रोफेशन भी है। हर प्रोफेशन की एसोसिएशन होती है जो उनके हितों की रक्षा करती है। उनके लिए आचार संहिता बनाती है क्योंकि उसके सदस्य जिम्मेदारी का काम कर रहे होते हैं, जैसे प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया आदि। ये संस्थाएं अपने सदस्यों के हितों की रक्षा भी करती हैं और उनकी भूमिका पर नजर भी रखती हैं। विचार करने की बात है कि लेखक संघों को भी इसी तरह चुस्त-दुरुस्त होना चाहिए और वर्तमान कठिन समय में लेखक का कवच-कुंडल बन जाना चाहिए। अतः लेखक संघों की जरूरत बनी रहेगी। लेखक, पाठक, प्रकाशक, पुस्तक वितरण, पाठ्य पुस्तक, शोध, भाषा प्रचार-प्रसार, प्रौद्योगिकी जैसे हर मुद्दे पर सुविचारित और सामूहिक आधार पर काम करने की जरूरत है। संघ इस सब में महती भूमिका निभा सकते हैं। तीनों ही लेखक संगठनों की ओवरहालिंग की जरूरत है। इधर प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जनसंस्कृति मंच के स्पष्टीकरण छपे हैं। अब इसके आगे जाने की जरूरत है। जरा सोचें कि लेखक संघों ने अब तक क्या क्या किया है और आगे क्या कैसे करना है।


सभी संघों के लिए किए जाने वाले कामों की एक सरसरी सूची प्रस्तावित की जा रही है। अनुरोध है कि संघों की प्रासंगिकता पर सुधी जन विचार करें:-
  • प्रत्येक संघ अपने अपने सदस्यों की सूची जारी करे।
  • आमदनी और खर्चे का हिसाब किताब सार्वजनिक किया जाए।
  • अपने काम में पारदर्शिता कायम रखी जाए।
  • युवा लेखकों को जोड़ा जाए।
  • संभावनाशील छात्र लेखकों के लिए कार्यक्रम और प्रतियोगिताएं की जाएं।
  • रस्मी गोष्ठियों से हटकर कार्यक्रमों में नवीनता लाई जाए।
  • गोष्ठियां और कार्यक्रम सिर्फ लेखकों के लिए ही नहीं, पाठकों के लिए भी किए जाएं।
  • पाठ्यक्रमों के निर्माण में हस्तक्षेप करें।
  • लेखकों को लेखकों के बीच ही नहीं, जनता के बीच भी ले जाएं।
  • संघ लघु पत्रिकाओं और पुस्तकों के वितरण में मदद करें।
  • लेखक-प्रकाशक रिश्तों को सुधारें और लेखक के हितों की रक्षा करें।
  • पाठ्यपुस्तक व्यवसाय की निगरानी करें।
  • हिंदी सेवी संस्थाओं की देखभाल/निगरानी करें।
  • लेखक सहायता कोष बनाएं।
  • संघों को सामंती और नौकरशाही वृत्तियों से मुक्त कराएं।
  • पहले लक्ष्य निर्धारित करें और उन्हें पूरा करें। अब आगे जाने की जरूरत है। जरा सोचें कि लेखक संघों ने अब तक क्या क्या किया है और आगे क्या कैसे करना है।

नई दुनिया 20 नवंबर, 2009

10 comments:

  1. अनूपजी, लेखक संगठनों का कोई मतलब नहीं है। सब आपसी राजनीति से प्रेरित हैं। किसी के पास कोई विचारधारा नहीं है।

    ये लेखक संगठन फिदा हुसैन के साथ तो खड़े नजर आते हैं परंतु तस्लीमा के साथ खड़े होने में इन्हें वैचरिक दिक्कत महसूस होती है।

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  2. आप कितने भोले हैं भाई
    क्या आपको लगता है कि इन सद् इच्छाओं पर कोई भी कार्रवाई होगी। यही कह सकता हूँ कि भाई सोचने को यह खयाल अच्छा है।

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  3. बोधि भाई ने सही कहा - पर आपके इस लेख को मैंने अपने कांटेक्ट की सभी आई डी पर मेल किया है. इन छोटी छोटी भोली इच्छाओं से ही शायद जीवन में बहुत कुछ बड़ा और अच्छा बचा रह सकता है.

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  4. अनूप जी, आपकी बातों और शिरीष जी की टिप्पणी से मैं अक्षरश: सहमत हूं. हो सकता है कि लेखक संघों/संगठनों ने अब तक वह सब नहीं किया हो, जिनकी हम उनसे अपेक्षा करते रहे, लेकिन इसका मतलब यह कैसे हो गया कि अब भी उनसे कुछ करने की उम्मीद न की जाए! हमारे यहां के प्रमुख लेखक संगठन विचारधारा (इसे राजनीति भी पढा जा सकता है) केन्द्रित हैं और ज़ाहिर है कि विचारधाराओं की दुनिया में जो धुंधलका इधर छाया हुआ है उससे हमारे ये संगठन भी अप्रभावित नहीं हैं. एक विचार यह भी हो सकता है कि लेखकों के व्यावसायिक हितों के संरक्षण के लिए एक अ-राजनीतिक लेखक संगठन बनाने पर विचार किया जाए.

    आपने जो कार्यक्रम सुझाया है उसमें से पाठ्यपुस्तकों वाले बिंदु से मेरी असहमति है. मेरा विनम्र सुझाव यह है कि हम पाठ्यपुस्तकों को लेखक संगठनों से अलग ही रखें तो बेहतर होगा. उनका अर्थशास्त्र और प्रकाशन-लेखन तंत्र सब कुछ अलग है. हां, लेखकों की जो रचनाएं पाठ्यपुस्तकों में ली जाती हैं, उनके बारे में हमारे लेखक संगठन विचार कर सकते हैं. यानि उनके सन्दर्भ में लेखकों के हितों के बारे में.

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  5. * ऐसा होना चाहिए
    * ऐसा हो नहीं रहा है
    * ऐसा ही हो ..ऐसा ही हो..।

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  6. लेखक संगठन प्रोफ़ेशनल काउंसिल इसलिए नहीं हो सकते क्योंकि शायद ही कोई लेखक हो जो इस अर्थ में प्रोफ़ेशनल हो कि लेखन ही उसकी जीविका हो. इक्का-दुक्का पुरानी पीढ़ी के ऎसे लोग मिल सकते हैं. ऎसा मेडिकल और प्रेस काउंसिल के साथ नहीं है. इसी कारण मेडिकल काउंसिल या प्रेस काउंसिल या बार काउंसिल की तरह न तो ऎसा कोई निकाय हो सकता है जो लेखक होने की अर्हता निर्धारित करे, लेखक होने का सर्टिफ़िकेट दे या उसे रद्द करे. लेखक संगठन उस अर्थ में ट्रेड यूनियन भी नहीं हो सकते जो कि प्रकाशकों , संस्थानों वगैरह से बार्गेन कर सकें क्योंकि इनसे उनका संबंध एम्प्लायर-एम्प्लाई वाला नहीं होता. हिंदी सहित जितनी भी भाषाएं हैं उनमें जितने भी लेखक-संगठन आज तक बने हैं वे वैचारिक-राजनीतिक आधार पर बने हैं. ऎसा इसीलिए है कि लेखकों को आपस में जोड़ने वाली शायद ही कॊइ और कामन चीज़ हो. आश्चर्य है कि श्री सेठी ने इस एकमात्र कड़ी जो लेखकों को जोड़ती है, उसपर कुछ नहीं लिखा है. लेखक संगठन कुछ काम कर सकते हैं. वह काम है कुछ खास जनपक्षधर मूल्यों को विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से लेखन और बौद्धिक कर्म के ज़रूरी सरोकारों के रूप में प्रतिष्ठित करना. साम्राज्यवाद, सामंतवाद, धार्मिक कट्टरता, दमन, शोषण की प्रवृत्तियों के खिलाफ़ लेखन को प्रेरित करके जनमत का निर्माण कर सकते हैं. इसके लिए बौद्धिकों के वैचारिक प्रशिक्षण की बड़ी ज़रूरत को वे पूरा कर सकते हैं. दरअसल संगठनों की इन भूमिकाओं पर कई दस्तावेज़ आते भी रहे हैं. उनपर भी एक बार गौर करना चाहिए ज़रूर.सत्येंद्र

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  7. भाई शरद कोकास ने मेल भेजी है -
    अनूप जी मै कुछ मुद्दे और जोड़ना चाहता हूँ -शरद कोकास
    • संगठनों द्वारा नियमित रूप से नये लेखकों के लिये कविता,कहानी लेखन शिविर आयोजित किये जायें ।
    • संगठन के वरिष्ठ साहित्यकार सदस्यों के महत्व को रेखांकित किया जाये तथा उनके सम्मान या महत्व कार्यक्रम आयोजित किये जायें ।
    • संगठन में जनतांत्रिक रूप से चुनाव करवाये जायें तथा सदस्यो के बीच आपसी सम्पर्क के लिये एक व्यस्थित सेटप तैयार किया जाये।
    और बातें धीरे धीरे जुडती जायेंगी -शरद कोकास

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  8. भाईयो,
    जेनुईन लेखन को संगठन की क्या ज़रूरत हो सकती है, समझ से बाहर है. और अनूप जी की कार्य सूची को अमल मे लाने के लिए तो छोटे मोटे सरकार की ज़रूरत पड़ेगी. (संगठन से मेरा क्या होगा?) मेरे लिए लेखन ऐसी खुजली है जो लिखने से ही मिट सकती है.उस की दवा न सरकार के पास है, न ही " समय- समय " par यानी समय aane पर सरकार द्वारा वित्त पोषित इन संगठनों के पास.
    मेरा 5 वर्षों का छोटा सा साहित्यिक अनुभव कहता है कि आप मेहनत से कुछ लिखें, तो प्रकाशक , पाठक, अलोचक, सब मिल जाते हैं.बिना किसी संगठन के. ulte ye संगठन 'अपने आदमी' को उठाने की कोशिश( अनूप जी इसे विचारधारा के आधार पर आरक्षण कहने की अनुमति देंगे मुझे ?) में इमान्दार aur sashakt लेखन को कुंठित किए दे रहे हैं.

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  9. वैचारिक सहमति के बिना किसी सांगठनिक ढांचे की कल्पना व्यवहारिक नहीं हो सकती। हां संगठन के नाम पर गिरोह जरूर खड़ा हो सकता है।

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