Wednesday, November 18, 2009

भाषा को हमने जीवन में जगह नहीं दी






महाराष्ट्र की नवनिर्वाचित विधान सभा में शपथ लेने की भाषा के बारे में जो कुछ हुआ, वह भाषा विमर्श पर कुठाराघात ही है। महाराष्ट्र में हिंदी भाषा का विरोध पहले से एक राजनैतिक हथियार बना हुआ है। विधान सभा में हुई हाथापाई का मतलब है, यह हथियार और पैना हुआ है। इससे राजनीति तो पता नहीं कितनी सधेगी, लेकिन लोगों के दिलों पर जख्म ज्यादा गहरे लगेंगे। कहते हैं, दर्द चला जाता है जख्मों के निशान नहीं जाते। ये जख्म चोट, पीड़ा और अपमान को बार बार याद दिलाते रहेंगे।
इस मसले को इस नजर से देखे जाने की जरूरत है कि आज भारतीय भाषाएं कठिन दौर से गुजर रही हैं। चाहे मराठी हो चाहे हिंदी, या गुजराती हो या कन्नड़। परिवर्तन इतनी तेजी से और आक्रामकता से हो रहा है कि भाषाएं गैर जरूरी सामान की तरह पीछे छूटे जा रही हैं। जैसे किसी नौजवान को शहर में नौकरी मिल जाए तो मां उसे अचार, गुड़, कपड़े और मुसीबत के वक्त के लिए पैसे देगी। लेकिन नौजवान तो जीवन को नए सिरे से शुरू करना चाहता है। उसे सफल होना है। और वहां न घर के बने अचार की जगह है, न देसी गुड़ की। बाजार अपना जाल बिछा कर सरे आम बैठा हुआ है। नौजवान को उसमें फंसना ही है। वह भी खुशी-खुशी। वह मनभावन खाएगा, तनभावन पहनेगा। नई जगह, नई नौकरी, नए कारोबार में पुराना कुछ भी काम नहीं आने वाला। इस पुराने में भाषा भी है। अगर नौजवान सफल और ऊंची नौकरी पर है तो जाहिर है वह अंग्रेजी के हाई वे से होकर आया है। भारतीय भाषाओं की पगडंडियां अंग्रेजी के हाई वे के अगल बगल छोड़ने के बाद ओझल हो जाती हैं। जैसे वक्त के साथ मां बाप पुराने पड़ने लगते हैं, फिर थोड़े कम जरूरी होते जाते हैं, हमारी भाषाएं भी उसी तरह गैर जरूरी हो गई हैं।
इसका यह मतलब नहीं है कि जो लोग ऊंची नौकरियों पर नहीं हैं, या महानगरों में नहीं हैं, वे लोग अपनी भाषा को ज्यादा महत्व देते हैं। तरक्की हर कोई करना चाहता है। यह समझ लिया गया है कि तरक्की के लिए अंग्रेजी की जरूरत है। यह एक सामाजिक सच्चाई भी है। भारतीय भाषाएं बोलचाल में तो फलफूल रही हैं, पर ठीक ठाक नौकरी के लिए अंग्रेजी की ही जरूरत है। इससे यह कड़वी सच्चाई सामने आती है कि जब तक मुल्क गरीब रहेगा, गांव बचे रहेंगे, तब तक भारतीय भाषाएं और बोलियां बची रहेंगी। लेकिन तरक्की तो अनिवार्य प्रक्रिया है। भाषा को बचाने के लिए लोगों को सुख सुविधा से वंचित नहीं रखा जा सकता। यह अंतर्विरोध है, जिसकी तरफ बुध्दिजीवियों को ध्यान देना चाहिए। योजनाकार इस मुद्दे पर नहीं सोचते। राजनेता तो बिल्कुल ही नहीं। वे तो बल्कि जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर डालते हैं।
इतने जटिल और कठिन समय में अस्मिता के नाम पे प्रदेश और भाषा को चंदन की तरह घिसकर तिलक किया जा रहा है। यह भावना में भिगोया हुआ तिलक नहीं है। यह कूटनीति के अम्ल में बुझा हुआ राजतिलक है। मनसे ने भाषा का राजतिलक लगाकर अपने रणबांकुरों को खुला छोड़ दिया है। यह हिंदी भाषी जनता के विरोध का ही दूसरा पहलू है। पहले गरीब उत्तर भारतीय हमले की जद में था। अब विशेषाधिकार प्राप्त क्षेत्र में हल्ला किया गया। अब हो यह रहा है कि चारों तरफ से तलवारें खिंच रही हैं। शपथ मानले पर मनसे बैकफुट पर आ गई तो उसने स्टेट बैंक में क्लर्कों की भर्ती की परीक्षा में मराठी मानुस का मुद्दा उठा लिया। वे परीक्षा रोकना चाहते थे। शिव सेना उनके विरोध में डट गई कि परीक्षा का होना जरूरी है। साफ है कि प्रदेश और भाषा की राजनीति हो रही है। सचिन तेंदुलकर ने मुंबई को भारत का बताया तो बाल ठाकरे उबल पड़े। उनकी पार्टी युवा वर्ग पर बगावत का आरोप भी लगा चुकी है। कुछ हफ्ते पहले उषा मंगेशकर ने भी एक टीवी प्रोग्राम में मराठी राग पर अच्छी लताड़ लगाई थी। लेकिन सत्तासीन कांग्रस और उसके सहयोगियों में बेहतर प्रबंधन की इच्छा नहीं दिखती है। ऐसे में सनसनी के भूखे मीडिया की मौज है।
मीडिया की तो अजीब हालत है। बिग बॉस में एक जेल बनाई गई है। वहां सजा देने का कोई मुद्दा नहीं मिला तो दो बार अंग्रेजी बोलने वालों को जेल की सजा सुनाई गई। एक आदमी को जिम्मेदारी दी गई कि कोई अंग्रेजी बोलता हुआ पाया जाए तो उसे जेल में डाल दो। भले ही यह खेल है लेकिन इतना हिंदी प्रेम! चैनल को पता है हिंदी से टीआरपी बढ़ेगी। इधर मनसे को पता है हुड़दंग करने से उसकी टीआरपी बढ़ेगी।
इन दोनों विपरीत स्थितियों में भाषा का खाना खराब हो रहा है। एक तो पहले ही हीनताग्रंथि की शिकार, ऊपर से इतनी थुक्का-फजीहत और मार-पीट। भाषा बेचारी को मुंह छिपाने को जगह नहीं मिलेगी। मनसे बोलेगी मराठी बोलो। अबू, लालू, पासवान, अमर सिंह बोलेंगे हिंदी बोलो। मीडिया मध्यस्थ बन रहा है। इस खींचतान में भाषाओं के ताने-बाने फटेंगे। मराठी के पक्ष में मनसे बाहुबल का प्रयोग कर रही है। शिव सेना रणनीतिक बयान देती है। महाराष्ट्र की कांग्रस और एनसीपी मुंह छिपाती है। इस मुद्दे का राजनैतिक लाभ हर कोई लेना चाहता है। हिंदी के पक्ष में लालू, मुलायम, पासवान वगैरह ही रह गए हैं। ये पिछड़ों के नेता हैं। कांग्रसियों में न हिम्मत है न इच्छा। असल में मनमोहनी सरकार में भाषा के लिए कोई जगह नहीं है। एक तो यह टेक्नोक्रेटों ब्यूरोक्रेटों जैसी सरकार है। नेता लोग पिछाड़ी बिठाए गए हैं। दूसरे विकास के जिस एजेंडे पर भारत अब तक चला है, उसमें भाषा को जगह है ही नहीं। नई आर्थिक नीति के बाद इस एजेंडे की रफ्तार बढ़ी ही है। इसलिए वे झगड़े में नहीं पड़ेंगे। भाषा संबंधी कानून भी जंग खाई मशीनों की तरह हैं। सिर्फ दिखाने के लिए, वे काम नहीं करते।
मसला हिंदी मराठी गुजराती बंगला का नहीं है। मसला यह है कि इन भाषाओं को हमने संस्कृति के हिस्से की तरह अपने जीवन में जगह नहीं दी। न हमने अपने बच्चों को किताबे पढ़ना सिखाया, न कलाओं का आस्वाद लेना। अलबत्ता, ऐतिहासिक स्मारकों में अपने नाम खोदने के लिए बच्चों के दिमाग में शरारत और हाथ में चाकू जरूर थमा दिया, जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा। इसके अलावा जिस तरह भौगोलिक और सामाजिक दृष्टि से बेतरतीब विकास हुआ है, उसी तरह जीवन की भीतरी जरूरतों में भी बेतरतीबी और लापरवाही रही है। इससे सांस्कृतिक दिवालियापन बढ़ा ही है। भाषा, साहित्य, कला, जीवन मूल्यों के प्रति हमारी संवेदनाएं धीरे धीरे मरती गई हैं। नकलीपन हावी होता रहा है। अब इन मसलों को राजनैतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। यह उसी समाज के लक्षण हैं जिसकी आत्मा धीरे धीरे मर रही हो। जो भीतर से खोखला हो रहा हो। नकलीपन कब तक साथ देगा।
ऐसे में सकारात्मक काम करने की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। बल्कि दिनों दिन बढ़ेगी ही। विधान सभा में जिस दिन हंगामा हुआ उसके अगले ही दिन मुझे एक कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला। साने गुरूजी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट एक अनुवाद सुविधा केंद्र चलाता है। इसमें उदय प्रकाश के कहानी संग्रह अरेबा परेबा के मराठी अनुवाद के लिए जय प्रकाश सावंत को पुरस्कृत किया गया। एक तरफ राजनीति में भाषा को हथियार की तरह भांजा जा रहा था और दूसरी तरफ दोनों भाषाएं गले मिल रही थीं और पुरस्कृत हो रही थी। जहां तलवारों की सनसनी थी वहां मीडिया की भीड़ थी। और जहां भाषा मिलन हो रहा था, वहां थोड़े से लोग और मंद आवाज में बोलने वाले मीडिया कर्मी थे। इस तरह की विडंबनाएं सोचने पर मजबूर करती हैं। और बार बार भाषा को गंभीरता से लेने की जरूरत महसूस होती है।


इस लेख का एक पाठ अमर उजाला में छपा है.

1 comment:

  1. विचारोत्तेजक . सरोज परमार को भी पसन्द आया.
    एक बात तो माननी पड़ेगी, गली मुहल्लो में भाषा ज़िन्दा है. उस की ज़रूरत रहेगी.कागज़ पर आते ही वह ज़हरीली हो जा रही है...... गुड़ भी ज़िन्दा है, उस की भी ज़रूरत रहेगी. ये स्वाद छूटते नहीं ऐसे.

    और कहाँ हम पहाड़ी को कागज़ पर स्थापित करने मे लगे हैं?

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