Thursday, November 26, 2009

26 11



आज मुंबई पर आतंकी हमले की बरसी है. जिनकी शहादत हुई उनके दुख पता नहीं हम कितने बांट पाएंगे. दूसरे तक पहुंच पाना ही कितना मु‍श्‍िकल हो रहा है. हर कोई अकेले अकेले कंटीली तारों में उलझा हुआ सा है. अंदर बाहर रस्‍मअदायगी बहुत है. पिछले साल हादसे के बाद कविता जैसा कुछ लिखा था. उसे आज फिर पढ़ने का मन है.


मुंबई मेरी जान
आज दूसरा दिन है. मुंबई आतंकवादियों के चंगुल में है। और मन बहुत उखड़ा हुआ है




यह शहर नहीं शरीर है मेरा
एक हिस्‍सा छलनी है
आपरेशन चल रहा है कब से
बेहोशी की दवा नहीं दी गई है मुझे
शहर चल रहा है
घाव जल रहा है
खुली आंख से देख रहा हूं सब कुछ
शहर तकलीफ में है
झेल रहा है





हट जाओ तमाशबीनो
अपने काम में लगो





यह कायर का वार है
मैंने इसे जंग नहीं माना है
जंग में मेरा यकीन भी नहीं
पर तुम्‍हें यकीन के मानी पता ही नहीं

3 comments:

  1. बहुत छूने वाली कविता है अनूप भाई ...।

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  2. मुसाफ़िरMay 11, 2010 at 1:21 PM

    दिल नाउम्मीद तो नहीं , नाकाम ही तो है
    लम्बी है ग़म की शाम , मगर शाम ही तो है
    http://rituondnet.blogspot.com/

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  3. बात तो सही है

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