Tuesday, July 21, 2009

कविता




कवि को देशनिकाला है

कुदरत ने बनाए मिट्टी पानी पेड़ और पहाड़
इंसान ने कथनी करनी का फैलाया जंजाल
कवि ने गाया कुदरत औ' इंसान का गान
दुख और राग रक्त में घुला
मिट्टी में सना

कवि ने छेड़ी जीवन की ऐसी खट मिट्ठी तान

सुनने वालों का दिल दहला जी पिघला
आंसू लुढ़के पत्थर हो गए
आह से निकली जलधार

जब जब गाया कवि ने जीवन का सच्चा गान

उसका रुदन उसका हास
उसकी घृणा उसकी प्रीत
कवि का जीना हुआ मुहाल

इंसान ने घड़ डाले चारण
आगे पीछे घूम विरुदावलियां गाने को
सच से बचने औ' सौ झूठ छिपाने को

आसान नहीं सच का गीत सुन पाना
अंतरमन तक छिल जाता है
जीवन के घमासान में भी कुछ कर जाता है

वो जिगरा कहां कि कोई आग में जले
वो हुलस कहां कि कोई चंदन मले

यहां कवि को देशनिकाला है.
यह भी सन् 2001 की ही कविता है और पिछले साल वागर्थ में छपी थी.

Friday, July 17, 2009

उदय प्रकाश के लिए







कवि की दुनिया

दुनिया में कवि से ज्यादा उजड्ड कोई नहीं
कवि से ज्यादा सभ्य कोई नहीं
तमाम दुनिया पानी भरती है कवि के आगे
इशारों पर नचाता फिरता है दिन रात
दुनिया की ऐसी तैसी करता रहता है कवि
दुनिया अपनी दुनिया में मगन हो दूसरी किसी दुनिया में निकल जाती
कवि एक एक डग से नापता एक एक लोक
कवि दुनिया की दुनिया और दूसरी अनेकानेक दुनियाओं में विचरता
अपनी एक दुनिया रच डालता रोज रोज
कोई देखे कवि की दुनिया से
कैसी दिखती है मेरी तुम्हारी दुनिया ª

यह कविता सन 2001 में लिखी थी और पिछले साल वागर्थ में छपी थी.