Tuesday, April 28, 2009

संपादकीय




हिमाचल मित्र के ग्रीष्‍म अंक 
का आवरण और व‍िषय-वस्‍तु आप देख चुके हैं. 
अब प्रस्‍तुत है संपादकीय

पिछले साल नवबंर महीने की छब्बीस तारीख इतिहास की उन तारीखों की तरह दर्ज हो गई जिनको याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ये तारीखें ऐसे हादसों को याद दिलाती हैं जो समुदायों, धर्मों या देशों की आपसी घृणा से पैदा हुईं; अपराधी मनोवृत्ति के चलते सफल हुईं और तमाम तरह की दुरभिसंधियों के सर्पजाल में उलझकर राष्ट्रों की गलफांस बनीं। ये तारीखें कहीं की भी हो सकती हैं चाहे वे न्यूयार्क की हों या इंग्लैंड की हों, अयोध्या, गोधरा, मुंबई, मालेगांव या गुवाहाटी की हों;  हर बार घृणा, अपराध और साजिश ने साधारण मनुष्यों की जान ली है। हर बार सुरक्षा एजेंसियां नकारा साबित हुईं; राजनैतिक सत्ता संवेदनहीनता की पहले से बड़ी मिसाल बन कर साबित हुई; कूटनीति की निरीहता उजागर हुई; वैश्विक शक्तियों की सत्ता, साम्राज्य और विजेता के न्याय-विधान का शिकंजा पहले से ज्यादा मजबूत हुआ।

हर बार आम आदमी मारा गया। जो बच रहा, वह छला गया। उसे नागरिक होने की कीमत चुकाने के लिए अपनी सुरक्षा को दांव पर लगाना पड़ रहा है। उसे जान हथेली पर लेकर ही जीवन बिताना है, क्योंकि वह एक बार ट्रेन हमले में बच गया है, एक बार आतंकवादी विस्फोट में मरते-मरते बचा है। एक बार जातीय दंगों में झुलसने के बावजूद जीवित बच आया है। लेकिन कब तक? कोई नहीं जानता अगली बार के अटैक में किसकी बारी आएगी, सचमुच कोई नहीं जानता।

मौत जब इस तरह सम्मुख आ खड़ी हो, तभी व्यक्ति जागता है, क्योंकि जिंदा रहने के लिए उसके पास जान की बाजी लगा देने का ही विकल्प बाकी बचता है। इस बार मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के बाद एक बार को लगने लगा कि जन जागरण शुरु हो गया है। अब राष्ट्र जाग जाएगा। अब किसी चिड़िया को पर मारने तक की इजाजत नहीं दी जाएगी। अब सारे खोट खत्म हो जाएंगे, तमाम तरह की असमानताएं मिट जाएंगी। सब कुछ सुधर जाएगा। आम आदमी निर्भय हो कर जी सकेगा। बच्चों की किलकारी और मुस्कान कोई नहीं छीन पाएगा।

लेकिन जो हजारों मोमबत्तियां जलाई गईं; मीलों लंबी मानव श्रृंखलाएं बनीं; अखबारों का टनों कागज़ बहस के नाम पर रद्दी हुआ; आम आदमी के कई टीवी वर्ष वही सनसनीखेज तोहमतें सुनते हुए बीते और अरबों-खरबों टर्न-ओवर के बावजूद मंदी की मार झेलनी पड़ी; नतीजा हमेशा की तरह वही का वही - एक महाशून्य।

समाज का हर पुर्जा खुद को अपनी जगह फिट किए रहने की जुगाड़ में जुटा रहा और फिट-फाट बने रहने की फिराक में लगा रहा। यह भी नतीजा निकलता लगा कि चूंकि हमले की जद में पांच सितारा होटल आए थे, इसलिए उच्च-भ्रू समाज तिलमिला उठा था। हमले की जद में सीएसटी रेलवे स्टेशन भी आया था। बल्कि वहां ज्यादा जानें गई थीं। पर होटलों में मेहमान थे। स्टेशन पर मुसाफिर थे। जिनमें से बहुतों के नाम गांव का भी पता नहीं। थोड़े ही दिनों में बड़े लोगों के बिगुल से फटी हुई हवा निकलने लगी। जन जागरण की बहसों के दरम्यान हमारा जीवन-जगत पहले की ही चाल से चलता रहा। राजनेता आम चुनावों की तैयारी में मुख्यमंत्री बदलते रहे; नौकरशाही सारी व्यवस्था को ऑटो मोड पे छोड़कर मद-मस्त बनी रही; सरमाएदार सबको धमकाने में, व्यवसायी गोटी बिठाने में लगा रहा; घूसखोर ने घूस लेना नहीं छोड़ा, अपराधी ने अपराध;  ऐय्याश ने ऐय्याशी नहीं छोड़ी, वाग्विलासी ने बकबक। और हम ऐसे जन-जागरण की उम्मीद लगाए बैठे हैं कि दुनिया रातों-रात चकाचक स्वर्ग में बदल जाएगी।

इतना भोलापन मूर्खता से कम नहीं। हम सोचते हैं दूसरा बदले, हमें अपना चाल-चलन, सोच-विचार न बदलना पड़े। हमें  याद रखना होगा, समाज आत्मान्वेषण और आत्मालोचन के बिना पोखर की तरह हो जाते हैं, जहां के पानी में हरकत नहीं होती और वह सड़ जाता है। हमें खुद को बार-बार याद दिलाना होगा कि परिवर्तन की शुरुआत हमीं से होगी। हम दूसरों से जो अपेक्षा करते हैं, वैसा हमें कर के दिखाना होगा। हमें अपने-आप से, अपने परिवार से, अपनी कौम से, अपने समाज से, अपने राष्ट्र से और अपने विश्व से अपने रिश्तों की ओवरहालिंग करने की जरूरत है। अगर हम अपने कर्तव्यों के प्रति चौकन्ने बने रहें तो असुरक्षा का भय अपने आप मिट जाएगा। अगर हम पल-छिन खुद को याद दिलाते रहें कि हम सभ्य समाज के सचेतन अंग हैं, यह दुनिया हमी से बनी है, हम ही इसके रक्त मज्जा और अस्थियां हैं, हमी इसकी आत्मा और चेतना। तब जाकर शायद विचारधारा और सामाजिक जन जागरण या बाहरी तंत्र-विधान कुछ काम करना शुरू करें। शायद सर्वांगीण समाज सुधार एक तरह की चेतना-अवस्था को प्राप्त करना ही होता है। और उच्चतर मानवीय चेतना का स्वप्न भी शायद ऐसा ही है। इस स्वप्न का अगर कुछ हिस्सा भी पूरा हो जाए तो शायद रोजमर्रा की जिंदगी में कुछ चिहुंक भर जाए।

इस बार आमुख कथा चित्र दीर्घा में से निकली है और बातचीत राजनीति के गलियारे से। एक प्रखर युवा पत्रकार इस बार से एक स्तंभ लिखना शुरू कर रहे हैं। वे हर बार किसी जरूरी मुद्दे पर हमें आइना दिखाएंगे। पहाड़ी चित्र कला की जगह इस बार पूर्वी तिब्बत का 18वीं सदी का एक दुर्लभ थंकाचित्र। बाकी स्तंभ धीरे धीरे स्थिर हो रहे हैं, शायद पिछले अंक से एक कदम आगे।

कोशिश करने के बावजूद अंक में देरी हुई है। पिछले वर्षों में वसंत, वर्षा और शरद अंक निकल चुके हैं। गर्मियों में हिमाचल की ठंडी फुहार लेकर ग्रीष्म अंक पहली बार आ रहा है। उम्मीद है यह सभी को सराबोर करेगा।  



4 comments:

  1. नए-पुराने अंकों की तमाम सामग्री भी इंटरनेट पर इसी तरह के माध्यम या अन्य विधि से डालें तो हम पाठकों का कुछ और भला होगा.

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  2. पत्रिका के लिए शुभकामना। बेहतर सम्‍पादकीय के लिए बधाई। जितना हो-हल्‍ला मुम्‍बई हमले के बाद पत्रकारों ने किया वह सब राजनीति का हिस्‍सा था। कोई भी नौकरशाह और पत्रकार इस देश में मजबूत राजनेता नहीं चा‍हते वे चाहते हैं कि ऐसी ही ढुलमुल सरकारें चलती रहें और उनकी चवन्‍नी अठन्‍नी में बदलती रहे। अपरोक्ष रूप से वे ही शासन में बने रहे।

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  3. अनूप जी इस सम्पादकीय को यहाँ पढने के बाद तो पत्रिका का बेसब्री से इंतज़ार है.

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