Saturday, December 6, 2008

कविता:किसी दिन अचानक

किसी दिन अचानक

सुबह, शाम या रात में

आंखों के सामने आ खड़ा हो आसमान

भुरभुरी धुंध, बादल पहाड़ी पर चढ़ आएं

स्लेट की छतों को ढक लें धीरे धीरे

चीड़ की नुकीली पत्तियां एक एक बूंद को थामे रहें

किसी दिन अचानक

सुबह, शाम या रात में

खिड़की ज़रा सा पर्दे को हिलाकर

कुर्सी पर आ बिराजे

आंखों के सामने आसमान

व्यस्त लोगों के कंधे झकझोर के पूछूं

देखा तुमने दूधिया था आसमान

बूंद दो बूंद गिरेंगी

कम हो जाए बंबई में गर्मी शायद

ट्रेनें तो पर चल रही हैं नियमित

चिकनी ढीठ अरब की खाड़ी

जाओ तुम भी लादो उतारो जहाज़

छाती पर व्यापारियों का बोझ ढोना ही बदा है

मुझे तो छुट्टी दे दो आज

आसमान से संवाद कर लूं

आविदा परवीन को सुन लूं

धुंध के रेशों से सवा दो अक्षर की कहानी बुन लूं

विजय कुमार की कविताएं पढ़ लूं

अदृश्य हो जाएंगी सूखी पत्तियां